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अविनाभावादीनां लक्षणानि
प्रतिषेध्येनाविरुद्धस्यानुपलब्धिः प्रतिषेधे साध्ये सप्तधा भवति । स्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरानुपलब्धिभेदात् ।
तत्र स्वभावानुपलब्धिर्यथा
नास्त्यत्र भूतले घट उपलब्धि लक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेः ॥ ७९ ॥
पिशाचादिभिर्व्यभिचारो मा भूदित्युपलब्धिलक्षणप्राप्तस्येति विशेषणम् । कथं पुनर्यो नास्ति स उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्तत्प्राप्तत्वे वा कथमसत्त्वमिति चेदुच्यते- प्रारोप्यैतद्रूपं निषिध्यते सर्वत्रारोपितरूपविषयत्वान्निषेधस्य । यथा 'नायं गौर:' इति । न ह्यत्रैतच्छक्यं वक्तुम् सति गौरत्वे न निषेधो निषेधे वान गौरत्वमिति । नन्वेवमदृश्यमपि पिशाचादिकं दृश्यरूपतयाऽऽरोष्यप्रतिषेध्यतामिति चेन्न; आरोप
सूत्रार्थ - प्रतिषेधरूप साध्य में अविरुद्ध अनुपलब्धि हेतुके सात भेद होते हैं - स्वभाव - अविरुद्धानुपलब्धि, व्यापक श्रविरुद्धानुपलब्धि, कार्य-प्रविरुद्धानुपलब्धि, कारण अविरुद्धानुपलब्धि, पूर्वचर अविरुद्धानुपलब्धि, उत्तरचर प्रविरुद्धानुपलब्धि और सहचर विरुद्धानुपलब्धि । प्रतिषेध्य के विरुद्धकी अनुपलब्धि होना रूप हेतु प्रतिषेधरूप साध्य के होने पर सात प्रकार का होता है ।
उनमें क्रमप्राप्त स्वभावानुपलब्धिको कहते हैं
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नास्त्यत्र भूतले घटो उपलब्धि लक्षण प्राप्तस्यानुपलब्धेः ||७||
सूत्रार्थ - इस भूतलपर घट नहीं है क्योंकि उपलब्धि लक्षण प्राप्त होकर भी अनुपलब्धि है । पिशाच परमाणु प्रादिके साथ व्यभिचार न होवे इसलिये " उपलब्धि लक्षण प्राप्तस्य " ऐसा हेतुमें विशेषण प्रयुक्त हुआ है ।
शंका- जो नहीं है वह उपलब्धि लक्षण प्राप्त कैसे हो सकता हैं और जो उपलब्धि लक्षण प्राप्त है उसका प्रसत्त्व कैसे कहा जा सकता है ?
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समाधान — उपलब्धि लक्षण प्राप्तका प्रारोप करके निषेध किया जाता है, क्योंकि सर्वत्र निषेधका विषय आरोपितरूप ही होता है । जैसे यह गोरा नहीं है । यहां पर ऐसा तो नहीं कह सकते कि गोरापन है तो निषेध नहीं हो सकता और निषेध ही है तो गोरापन काहे का ।
शंका- यदि ऐसा है तो अदृश्यभूत पिशाचादिका भी दृश्यपनेका आरोप करके प्रतिषेध करना चाहिये ?
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