________________
अविनाभावादीनां लक्षणानि
४०६
दावुपलभ्यमानेप्यनुपलम्भसम्भवात्; तदयुक्तम्; यतः प्रदेशादिनै कज्ञानसंसगिण एव घटस्याभावो नान्यस्य । यस्तु पिशाचादिनाऽन्यत्वमापादितः स नैव निषेध्यते । इह चैकज्ञानसंसर्गिभासमानोर्थस्तज्ज्ञानं च पर्युदासवृत्त्या घटस्याऽसत्तानुपलब्धिश्चोच्यते ।
ननु चैवं केवलभूतलस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात्तद् पो घटाभावोपि सिद्ध एवेति किमनुपलम्भसाध्यम् ? सत्यमेवैतत्, तथापि प्रत्यक्षप्रतिपन्नेप्यभावे यो व्यामुह्यति साङ्खयादिः सोनुपलम्भं निमित्तीकृत्य प्रतिपाद्यते । अनुपलम्भनिमित्तो हि सत्त्वरजस्तमःप्रभृतिष्वसद्वयवहारः । स चात्राप्यस्तीति निमित्त
देता अतः उपलब्ध होने योग्य होकर उपलब्ध न होवे तो उसका नियमसे अभाव ही है ऐसा कहना गलत ठहरता है ?
समाधान-यह शंका अयुक्त है प्रदेशादिसे जो घट एक ज्ञानका संसर्गी (विषय) था उसी घटका अभाव निश्चित किया जाता है न कि अन्य घटका । जो घट पिशाचादि द्वारा अन्यरूप अर्थात् अदृश्यरूप कर दिया है उसका निषेध ( अभाव ) नहीं किया जाता है। यहां पर एक पुरुषके ज्ञान संसर्गमें प्रतिभासमान पदार्थ और उसका ज्ञान इन दोनोंको पर्युदासवृत्तिसे घटकी असत्ता और अनुपलब्धि इन शब्दों द्वारा कहा जा रहा है । अभिप्राय यह है कि किसी एक पुरुषने एक स्थान पर घट देखा था पुनः किसी समय उस स्थान को घट रहित देखता है तो अनुमान करता है यहां भूतल पर घट नहीं है क्योंकि उपलब्ध नहीं होता (दिखायी देने योग्य होकर भी दिखता नहीं) जो घट पिशाचादिके द्वारा अदृश्य किया गया है उस घट की चर्चा इस अनुमान में नहीं है।
शंका-ऐसी बात है तो केवल भूतल तो प्रत्यक्ष सिद्ध है अतः उस रूप घट का अभाव भी सिद्ध ही हैं इसलिये "नास्त्यत्रभूतले” इत्यादि अनुमान के अनुपलभ हेतुसे क्या सिद्ध करना है ?
समाधान-यह कथन सत्य है, किन्तु अभावके प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञात होनेपर भी जो सांख्यादिपरवादी उस अभावके विषयमें व्यामोहित हैं अर्थात् अभावको स्वीकार नहीं करते उनको अनुपलंभ हेतुका निमित्त करके प्रतिबोधित किया जाता हैं।
सांख्याभिमत सत्त्वरजतमः आदि प्रकृतिके धर्मों में असत्पनेका जो व्यवहार होता है वह अनुपलंभके निमित्तसे ही होता है अर्थातु सत्त्वमें रजोधर्म नहीं है अथवा रजोधर्म में सत्त्वधर्म नहीं है इत्यादि अभावका व्यवहार अनुपलंभ हेतु द्वारा ही होता है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org