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अविनाभावादीनां लक्षणानि
४०१ तस्मात्परिणामोति । कृतकत्वं हि परिणामित्वेन व्याप्तम् । पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामशून्यस्य सर्वथा नित्यत्वे क्षणिकत्वे वा शब्दस्य कृतकत्वानुपपत्तर्वक्ष्यमाणत्वाद् । किं पुनः कार्यलिङ्गस्योदाहरणमित्याह
अस्त्यत्र देहिनि बुद्धिाहारादेः ॥६६।। व्याहारो वचनम् । आदिशब्दाद्वयापाराकारविशेषपरिग्रहः। ननु ताल्वाद्यन्वयन्यतिरेकानुविधायितया शब्दस्योपलम्भात्कथमात्मकार्यत्वं येनातस्तदस्तित्व सिद्धिः स्यात् ? न खल्वात्मनि विद्यमानेपि विवक्षाबद्धपरिकरे कफा दिदोषकण्ठादिव्यापाराभावे वचनं प्रवर्तते; तदप्यसारम्; शब्दोत्पत्ती
कह आये हैं। इस सूत्रमें अन्वय दृष्टांतका प्रतिपादन करके व्यतिरेक दृष्टांत देते हुए कहते हैं कि जो परिणामी नहीं होता वह कृतक नहीं देखा जाता जैसे वंध्याका पुत्र । यह कृतक है इसलिये परिणामी है । कृतकपना परिणामीके साथ व्याप्त है। पूर्व आकारका परिहार और उत्तर प्राकारकी प्राप्ति एवं स्थिति है लक्षण जिसका ऐसे परिणामसे जो शून्य है उस सर्वथा क्षणिक या नित्य पक्षमें शब्दका कृतकपना सिद्ध नहीं हो सकता। आगे शब्दनित्यत्ववाद प्रकरणमें इस विषयको कहने वाले हैं । कार्य हेतुका उदाहरण क्या है ? ऐसा प्रश्न होनेपर कहते हैं
अस्त्यत्र देहिनि बुद्धि ाहारादेः ।।६६॥ सूत्रार्थ- इस प्राणीमें बुद्धि है, क्योंकि वचनालाप आदि पाया जाता है । वचनको व्याहार कहते हैं आदि शब्दसे व्यापार-प्रवृत्ति प्राकार विशेष (मुखका प्राकार आदि) का ग्रहण होता है । किसी व्यक्तिके वचन कुशलताको देखकर बुद्धिका अनुमान लगाना कार्यानुमान है इसमें बुद्धिके अदृश्य रहते हुए भी उसका कार्य वचनको देखकर बुद्धिका सत्त्व सिद्ध किया जाता है ।
शंका-तालु कंठ प्रादिके अन्वय व्यतिरेक का अनुविधायी शब्द है अर्थात् तालु आदिकी प्रवृत्ति हो तो शब्द उत्पन्न होता है और न हो तो नहीं, इसलिये शब्द तो तालु आदिका कार्य है उसको आत्मा का ( बुद्धिका ) कार्य किसप्रकार कह सकते हैं ? जिससे कि वचनालापसे प्रात्मरूप बुद्धिका अस्तित्व सिद्ध हो । तथा आत्माके विद्यमान होते हुए भी बोलने की इच्छाको रोकनेवाले कफादिदोष के कारण कंठादि व्यापार के प्रभावमें वचन नहीं होते, अतः वचनको बुद्धिका कार्य न मानकर व तालु आदिका कार्य मानना चाहिए ?
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