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________________ ४०२ प्रमेयकमलमार्तण्डे ताल्वादिसहायस्यैवात्मनो व्यापाराभ्युपगमात् । घटाद्युत्पत्तौ चक्रादिसहायस्य कुम्भकारादेयापारवत्, कथमन्यथा घटादेरप्यात्मकार्यता ? कार्यकार्यादेश्च कार्यहेतावेवान्तर्भावः । कारणलिंगं यथा अस्त्पत्र छाया छत्रात् ।।६७।। कारणकारणादेर त्रैवानुप्रवेशान्नार्थान्तरत्वम् । पूर्वचरलिंगं यथा उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयात् ।।६८।। पूर्वपूर्वचराद्यनेनैव संगृहीतम् । उत्तरचरं लिंगं यथा उदगाद्भरणिस्तत एव ।।६९।। समाधान-यह कथन असार है, जैनने शब्दकी उत्पत्तिमें तालुपादिकी सहायतासे युक्त आत्माको कारण माना है, जैसे घट आदिकी उत्पत्तिमें चक्रादिकी सहायतासे युक्त हुआ कुभकार प्रवृत्ति करता है । शब्दकी उत्पत्तिमें आत्माको कारण न मानो तो घटादिकी उत्पत्तिमें आत्माको कारण भी किसप्रकार मान सकते हैं ? अस्तु । इस कार्य हेतुमें ही कार्यकार्यहेतुका अंतर्भाव होता है । कारण हेतुका उदाहरण अस्त्यत्र छाया छत्रात् ।।६७।। सूत्रार्थ – यहांपर छाया है क्योंकि छत्र है । कारण कारण हेतुका इसी हेतुमें अंतर्भाव होनेसे उसमें पृथक हेतुत्व नहीं है । पूर्वचर हेतुका उदाहरण उदेष्यति शकटं कृतिकोदयात् ।।६८।। सूत्रार्थ-एक मुहूर्त बाद रोहिणी नक्षत्रका उदय होगा, क्योंकि कृतिका नक्षत्रका उदय हो रहा है। पूर्व पूर्वचर हेतु इसीमें अंतर्हित है। उत्तरचर हेतुका उदाहरण उदगाद् भरणि स्तत एव ।।६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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