SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 448
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०३ अविनाभावादीनां लक्षणानि कृत्तिकोदयादेव । उत्तरोतरचरमेतेनैव संगृह्यते । सहचरं लिंगं यथा अस्त्यत्र मातुलिंगे रूपं रसात् ।।७०॥ संयोगिन एकार्थसमवायिनश्च साध्यसमकालस्यात्रैवान्तर्भावो द्रष्टव्यः । सूत्रार्थ-एक मुहूर्त पहले भरणि नक्षत्रका उदय हो चुका है क्योंकि कृतिकोदय हो रहा । इसी हेतुमें उत्तर उत्तर चर हेतु गभित होता है । सहचर हेतुका उदाहरण अस्त्यत्र मातुलिंगे रूपं रसात् ।।७।। सूत्रार्थ-इस बिजौरेमें रूप है क्योंकि रस है। साध्यके समकालमें होनेवाले संयोगी और एकार्थसमवायी हेतुका इसी सहचर हेतुमें अंतर्भाव हो जाता है । विशेषार्थ-नैयायिक मतमें संयोगी और एकार्थ समवायी हेतु भी माने हैं, जैनाचार्यने इनको सहचर हेतुमें अंतर्भूत किया है। जो साध्यके समकालमें हो तथा साध्यका कार्य या कारण न हो वह सहचर हेतु कहलाता है, उक्त संयोगी आदि हेतु इसी रूप है जैसे-~-यहां आत्माका अस्तित्व है, क्योंकि विशिष्ट शरीराकृति विद्यमान है । आत्मा और शरीरका संयोग होनेसे विशिष्ट शरीर रूप हेतु संयोगी कहलाता है, इसका सहचर हेतुमें सहज ही अंतर्भाव हो जाता है, क्योंकि जैसे बिजौरेमें रूप और रस साथ उत्पन्न होते हैं वैसे विवक्षित पर्यायमें अात्मा और शरीर साथ रहते हैं। एकार्थ समवायी हेतु भी सहचर हेतु रूप है-एक अर्थ में समवेत होने वाले रूप रस आदि अथवा ज्ञान दर्शन आदि हैं इनमें से एकको देखकर अन्यका अनुमान होता है । पूर्वचर हेतुका उदाहरण यह दिया कि एक मुहूर्त्तके अनंतर रोहिणीका उदय होगा क्योंकि कृतिकाका उदय हो रहा । उत्तर हेतु-एक मुहूर्त पहले भरणिका उदय हो चुका है क्योंकि अब कृतिकोदय हो रहा । भरणि कृतिका और रोहिणी इन तीन नक्षत्रोंका आकाशमें उदय एक एक मुहूर्त्तके अंतरालसे होता है अतः ज्योतिर्विद इनमेंसे किसी एक नक्षत्रोदयको देखकर अन्य नक्षत्रके उदयका अनुमान कर लेते हैं। कृतिकोदय इनके मध्यवर्ती है अतः यह रोहिणी उदयका पूर्वचर है और भरणिका उत्तर चर है । कृतिकोदयको देखकर दोनों अनुमान हो जाते हैं कि एक मुहूर्त पहले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy