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________________ ४०४ प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रथाविरुद्धोपलब्धिमुदाहृत्येदानी विरुद्धोपलब्धिमुदाहत्तु विरुद्धत्याद्याह विरुद्धतदुपलब्धिः प्रतिषेधे तथेति ।।७१।। प्रतिषेध्येन यद्विरुद्ध तत्सम्बन्धिनां तेषां व्याप्यादीनामुपलब्धिः प्रतिषेधे साध्ये तथाऽविरुद्धोपलब्धिवत् षट्प्रकारा। तानेव षट् प्रकारान् यथेत्यादिना प्रदर्शयति (यथा) नास्त्यत्र शीतस्पर्श औष्ण्यात् ।।७२।। यथेत्युदाहरणप्रदर्शने । औष्ण्यं हि व्याप्यमग्नेः । स च विरुद्ध : शीतस्पर्शेन प्रतिषेध्येनेति । विरुद्धकार्य लिंगं यथा नास्त्यत्र शीतस्पर्को धृमात् ॥७३॥ भरणिका उदय हो चुका है, तथा एक मुहुर्त बाद रोहिणीका उदय होगा। इसतरह कृतिकोदय हेतु भरणिके प्रति उत्तर चर और रोहिणीके प्रति पूर्वचर है । अस्तु । ___अविरुद्धोपलब्धिके उदाहरणोंको प्रस्तुत कर अब विरुद्धोपलब्धिके उदाहरणों का प्रतिपादन करते हैं - विरुद्ध तदुपलब्धिः प्रतिषेधे तथा ।।७१॥ सूत्रार्थ-प्रतिषेधरूप साध्यमें विरुद्धोपलब्धि हेतुके वैसे ही भेद होते हैं। प्रतिषेध्यरूप साध्यसे जो विरुद्ध है उस विरुद्धके संबंधभूत व्याप्य, कार्य आदिकी उपलब्धि होना विरुद्धतदुपलब्धि कहलाती है, प्रतिषेधरूप साध्यमें इस हेतुके अविरुद्धोपलब्धिके समान छह भेद हैं । अब उन्हींके भेद क्रमसे बताते हैं यथा नास्त्यत्र शीतस्पर्श औष्ण्यात् ।।७२।। सूत्रार्थ-यहांपर शीत स्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है। सूत्रोक्त यथा शब्द उदाहरणका द्योतक है । औष्ण्य अग्निका व्याप्य है वह प्रतिषेध्यभूत शीतस्पर्शके विरुद्ध है अतः यह हेतु व्याप्य विरुद्धोपलब्धि है । विरुद्ध कार्य हेतुका उदाहरण नास्त्यत्र शीतस्पर्शोधूमात् ।।७३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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