SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 450
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विरुद्धका लिंगं यथा श्रविनाभावादीनां लक्षणानि नास्मिन् शरीरिणि सुखमस्ति हृदयशल्यात् ॥७४॥ सुखेन हि प्रतिषेध्येन विरुद्ध दुःखम् । तस्य कारणं हृदयशल्यम् । तत्कुतश्चित्तदुपदेशादेः सिद्धयत्सुखं प्रतिषेधतीति । विरुद्धपूर्व चरं यथा नोदेष्यति मुहूर्त्तान्ते शकटं रेवत्युदयात् ||७५ || शकटोदयविरुद्ध ह्यश्विन्युदयस्तत्पूर्वचरो रेवत्युदय इति । विरुद्धोत्तरचरं यथा नोदगाद्भरणिमुहूर्तात्पूर्वं पुष्योदयात् ॥ ७६ ॥ सूत्रार्थ - यहांपर शीत स्पर्श नहीं है, क्योंकि धूम है । विरुद्ध कारण हेतुका उदाहरण नास्मिन् शरीरिणि सुखमस्ति हृदयशल्यात् ॥७४॥ सूत्रार्थ - इस शरीरधारी प्राणीमें सुख नहीं है, क्योंकि हृदयमें शल्य है । प्रतिषेध्यभूत सुखके विरुद्ध दुःख है और उसका कारण हृदय शल्य है, उस हृदयशल्यका अस्तित्व किसीके कथनसे जाना जाता है और उससे सुखका प्रतिषेध होता है । विरुद्ध पूर्वचर हेतुका उदाहरण नोदेष्यति मुहूर्त्तान्ते शकटं रेवत्युदयात् ।।७५।। सूत्रार्थ - एक मुहूर्त्त के अनंतर रोहिणीका उदय नहीं होगा क्योंकि रेवती नक्षत्रका उदय हो रहा । रोहिणी उदयके विरुद्ध अश्विनीका उदय है और उसका पूर्वचर रेवतोका उदय है, अतः रेवतीका उदय रोहिणी के विरुद्ध पूर्वचर कहलाया । विरुद्ध उत्तरचर हेतुका उदाहरण Jain Education International ४०५ ―― नोदगाद्भरणि मुहूर्त्तात् पूर्वं पुष्योदयात् ॥७६॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy