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________________ ४०६ प्रमेयकमलमार्तण्डे भरण्युदयविरुद्धो हि पुनर्वसूदयस्तदुत्तरचरः पुष्योदय इति । विरुद्धसहचरं यथा. नास्त्यत्र भिचौ परभागाभावोऽर्वाग्भागदर्शनात् ॥७७॥ परभागाभावेन हि विरुद्धस्तत्सद्भावस्तत्सहचरोऽग्भिाग इति । अथोपलब्धि व्याख्यायेदानीमनुपलब्धि व्याचष्टे । सा चानुपलब्धिरुपलब्धिवद् द्विप्रकारा भवति । अविरुद्धानुपलब्धिविरुद्धानुपलब्धिश्चेति । तत्राद्यप्रकारं व्याख्यातुकामोऽविरुद्ध त्याद्याह अविरुद्धानुपलब्धिः प्रतिषेधे सप्तधा स्वभावव्यापककार्यकारण पूर्वोचरसहचरानुपलम्भभेदादिति ॥७८।। सूत्रार्थ-एक महत पहले भरणिका उदय नहीं हया क्योंकि पुष्यका उदय हो रहा । भरणि उदयका विरोधी पुनर्वसू का उदय है और उसका उत्तरचर पुष्योदय है अतः पुष्योदय भरणि उदयका विरुद्ध उत्तरचर है । विरुद्ध सहचर हेतुका उदाहरण नास्त्यत्र भित्तौ परभागाभावोऽर्वाग्भाग दर्शनात् ।।७७॥ सूत्रार्थ- इस भित्ति में पर भागका अभाव नहीं है क्योंकि अर्वाग्भाव इधरका भाग दिखायी देता है। परभागके अभावका विरोधी उसका सद्भाव है और उसका सहचर अर्वागभाग है अतः यह विरुद्ध सहचर कहा जाता है । अब उपलब्धि हेतुका कथन करके अनुपलब्धि हेतुका प्रतिपादन करते हैं। वह अनुपलब्धि भी उपलब्धिके समान दो प्रकारकी है - अविरुद्ध अनुपलब्धि और विरुद्ध अनुपलब्धि । इनमें प्रथम प्रकारका व्याख्यान करते हैं अविरुद्धानुपलब्धिः प्रतिषेधे सप्तधा स्वभाव व्यापक कार्यकारणपूर्वोत्तर सहचरानुपलभभेदात् ।।७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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