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अविनाभावादीनां लक्षणानि
न च पूर्वोत्तरचारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा कालव्यवधाने तदनुपलब्धेः || ६१ ||
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प्रयोगः– युद्यत्काले अनन्तरं वा नास्ति न तस्य तेन तादात्म्यं तदुलत्तिर्वा यथा भविष्यच्छङ्खचक्रवत्तिकाले असतो रावणादेः, नास्ति च शकटोदयादिकाले श्रनन्तरं वा कृत्तिकोदयादिकमिति । तादात्म्यं हि समसमयस्यैव कृतकत्वानित्यत्वादेः प्रतिपन्नम् । अग्निधूमादेश्चान्योन्यमव्यवहितस्यैव तदुत्पत्तिः, न पुनर्व्यवहितकालस्य प्रतिप्रसङ्गात् ।
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पूर्वचर और उत्तरचर हेतु भी उक्त हेतुओंसे पृथकरूप सिद्ध होते हैं ऐसा आगे के सूत्र में "कह रहे
न च पूर्वोत्तरचारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्ति व कालव्यवधानेतदनुपलब्धेः ॥ ६१ ॥
सूत्रार्थ – पूर्वचर हेतु और उत्तर हेतु तादात्म्य तथा तदुत्पत्तिरूप तो हो नहीं सकते क्योंकि इनमें कालका व्यवधान पड़ता है अतः इन हेतुओंका स्वभाव हेतु या कार्य हेतु अन्तर्भाव करना अशक्य है । काल व्यवधान में तो तादात्म्य और तदुत्पत्ति की अनुपलब्धि ही रहेगी। जो जिसकाल में या अनंतरमें नहीं है उसका उसके साथ तादात्म्य तदुत्पत्तिरूप संबंध नहीं पाया जाता है, जैसे श्रागामीकालमें होनेवाले शंख नामा चक्रवर्तीके समयमें प्रसद्भूत रावणादिका तादात्म्य या तदुत्पत्तिरूप संबंध नहीं पाया जाता । रोहिणी नक्षत्र के उदयकाल में अथवा अनंतर कृतिका नक्षत्रका उदय नहीं पाया जाता अतः उन नक्षत्रोंका तादात्म्यादि संबंध नहीं होता । जो समान समयवर्ती होते हैं ऐसे कृतकत्व और नित्यत्वादिका ही तादात्म्य संबंध हो सकता है । तथा अग्नि और धूम आदि के समान जो परस्परमें अव्यवहित रहते हैं उनमें ही तदुत्पत्ति संबंध होना संभव है, काल व्यवधानभूत पदार्थों में नहीं । ऐसा नहीं मानेंगे तो प्रतिप्रसंग होगा । अर्थात् प्रतीत और अनागतवर्त्ती में भी तादात्म्यादि माननेका अनिष्ट प्रसंग प्राप्त होगा ।
बौद्ध प्रज्ञाकर गुप्त नामा ग्रंथकार का मंतव्य है कि भावी रोहिणी का उदय कृतिकोदयका कार्य है अतः कृतिकोदयका गमक होता है, इसलिए इस रोहिणी उदयका कार्य हेतु में अंतर्भाव कैसे नहीं होगा ? अर्थात् इसका अंतर्भाव कार्य हेतुमें होना चाहिए |
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