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प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्यविचारः
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न चैवंवादिनो नैरात्म्यभावनाभ्यासो युक्तः फलाभावात् । न चात्मदृष्टिनिवृत्तिः फलम् ; तस्या एवासम्भवात् । 'सोहम्' इत्यस्तीति चेत्; न; स्मरणप्रत्यक्षोल्लेखव्यतिरेकेण तदनभ्युपगमात् । तथा च कुतस्तन्निमित्ता रागादयो यतः संसारः स्यात् ?
ननु पूर्वापरपर्याययोरेकत्वग्राहिणी प्रत्यभिज्ञा, तस्य चासम्भवात् कथमियम विसंवादिनी यतः प्रमाणं स्यात् ? प्रत्यक्षेण हि तृद्यद्रू पयोः प्रतीतिः स्वकालनियतार्थविषयत्वात्तस्य; इत्यपि मनोरथमात्रम्; सर्वथा क्षणिकत्वस्याग्रे निराकरिष्यमाणत्वात् । प्रत्यक्षेणाऽतृद्यद्रूपतयार्थप्रतीतेश्वानुभवात् कथं विसंवादकत्वं तस्या: ? ततः प्रमाणं प्रत्यभिज्ञा स्वगृहीतार्थाविसंवादित्वात् प्रत्यक्षादिवत् । नीलाद्यनेकाकाराक्रान्तं चैकज्ञानमभ्युपगच्छतः स एवायम्' इत्याकारद्वयाक्रान्तैकज्ञाने को विद्वेषः ?
तथा प्रत्यभिज्ञान का निराकरण करने वाले बौद्ध के यहां नैरात्म्य भावना का अभ्यास करना भी युक्त नहीं हैं, क्योंकि उसका कोई फल नहीं है । अपनत्व दृष्टि दूर होना उसका फल है ऐसा कहना भी असत् है, क्योंकि अपनत्व दृष्टि का होना ही असंभव है, “सोहम्" इस प्रकार से अपनत्व की दृष्टि होना संभव है ऐसा कहो तो वह भी ठीक नहीं, क्योंकि स्मरण और प्रत्यक्ष के उल्लेख बिना " सोहम् " इस प्रकार की अपनत्व की दृष्टि का होना स्वीकार नहीं किया है, इस तरह अपनत्व दृष्टि की सिद्धि होने पर उसके निमित्त से होने वाले रागद्वेष भी कैसे उत्पन्न हो सकेंगे जिससे संसार अवस्था सिद्ध होवे ? अभिप्राय यह है कि प्रत्यभिज्ञान के प्रभाव में रागद्वेष उत्पन्न होना इत्यादि सिद्ध नहीं होता ।
सौगत - पूर्व और उत्तर पर्यायों में एकत्व को ग्रहण करने वाला प्रत्यभिज्ञान है किन्तु उस एकत्व का होना असंभव होने से यह ज्ञान किस प्रकार अविसंवादक होगा जिससे उसको प्रमाण माना जाय । प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा नष्ट होते हुए स्वरूपों की हो प्रतीति होती है, क्योंकि स्वकाल में नियत रहने वाला पदार्थ उसका विषय है ?
जैन - यह कथन भी गलत है, सर्वथा क्षणिक वाद का हम आगे खण्डन करने वाले हैं । आपने कहा कि प्रत्यक्ष से वस्तुनों का नष्ट होता हुआ रूप ही प्रतीत होता है किन्तु यह बात सत्य है प्रत्यक्ष द्वारा तो ग्रन्वय रूप से पदार्थ की प्रतीति होती है, अतः प्रत्यभिज्ञान के विसंवादकपना कैसे हो सकता है, अर्थात् नहीं हो सकता, इसलिये निश्चित हुआ कि प्रत्यभिज्ञान प्रमाणभूत है, क्योंकि वह अपने गृहीत विषय में अविसंवादक है, जैसे प्रत्यक्षादि अविसंवादक है । ग्राप बौद्ध भी नीलादि अनेक प्रकारों
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