Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमल मार्त्तण्डे
न स एवायमित्याकारद्वयं किं परस्परानुप्रवेशेन प्रतिभासते, प्रननुप्रवेशेन वा ? प्रथमपक्षेऽन्यतराकारस्यैव प्रतिभासः स्यात् । द्वितीयपक्षे तु परस्परविविक्तप्रतिभासद्वयप्रसङ्गः । अथ प्रतिभासद्वयमेकाधिकरणमित्युच्यते; न; एकाधिकरणत्वासिद्ध ेः । न खलु परोक्षापरोक्षरूपौ प्रतिभासावेकमधिकरणं बिभ्राते सर्वसंविदामेकाधिकरणत्वप्रसङ्गात् । इत्यप्यसारम्, तदाकारयोः कथञ्चित्परस्परानुप्रवेशेनात्माधिकरणतयात्मन्येवानुभवात् । कथं चैवंवादिनश्चित्रज्ञान सिद्धि: ? नीलादिप्रतिभासानां परस्परानुप्रवेशे सर्वेषामेकरूपतानुषङ्गात् कुतश्चित्रतैकनीलाकारज्ञानवत् ? तेषां तदननुप्रवेशे भिन्नसन्ताननीबादिप्रतिभासानामिवात्यन्तभेदसिद्ध नितरां चित्रताऽसम्भवः । एकज्ञानाधिकरणतया तेषां प्रत्यक्षतः प्रतीतेः प्रतिपादितदोषाभावे प्रकृतेप्यसौ मा भूत्तत एव ।
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से व्याप्त ऐसे एक ज्ञान को स्वीकार करते हैं तो " वही यह है" इस प्रकार के दो आकारों से व्याप्त ज्ञानको एक मानने में कौन सा विद्वेष है ?
बौद्ध - "वही यह है" ऐसे दो आकार परस्पर में मिले हुए प्रतिभासित होते हैं या बिना मिले प्रतिभासित होते हैं ? प्रथम विकल्प कहो तो दो में से कोई एक प्राकार ही प्रतीत हो सकेगा क्योंकि दोनों परस्पर में मिल चुके । दूसरे पक्ष में परस्पर से सर्वथा पृथक् दो प्रतिभास सिद्ध होंगे। कोई कहे कि दो प्रतिभासों का अधिकरण एक है अत: एकत्व सिद्ध होगा ? सो यह कथन भी ठीक नहीं, एकाधिकरणत्व ही प्रसिद्ध है क्योंकि परोक्ष और अपरोक्ष रूप दो प्रतिभास यदि एक अधिकरण को धारण करेंगे तो सभी ज्ञान में एक अधिकरणपना सिद्ध होगा ?
जैन - यह कथन प्रसार है । पूर्वापर दो ग्राकारों का कथंचित् परस्परानु प्रवेश द्वारा ग्रात्मा अधिकरणरूप से अपने में ही प्रतीत होता है, तथा इस प्रकार एकाधिकरणत्व का निषेध करने वाले बौद्ध के यहां चित्र ज्ञान की सिद्धि किस प्रकार होगी ? क्योंकि नील पीत प्रादि प्रतिभासों का परस्पर में प्रवेश होने पर सभी आकारों को एक रूप हो जाने का प्रसंग प्राप्त होता है अतः उनमें चित्रता किससे आयेगी ? अर्थात् नहीं आ सकती, जिस प्रकार एक नील आकार वाले ज्ञान में नहीं होती । तथा नोलादि अनेक आकार परस्पर में प्रविष्ट नहीं हैं ऐसा मानते हैं तो वे ग्राकार भिन्न भिन्न संतानों के नील पीत आदि प्रतिभासों के समान अत्यंत भिन्न सिद्ध होने से उनमें चित्रता होना नितरां असंभव है । बौद्ध कहे कि एकाधिकरणपने से नील पीतादि आकारों की प्रत्यक्ष से प्रतीति होती है अतः उपर्युक्त दोष नहीं आते हैं, तो प्रकृत
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