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पूर्ववदाद्यनुमान त्रैविध्यनिरासः
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च्छरीरे च प्रारणाद्यभावविरुद्धः प्रारणादिसद्भावः प्रतीयमानस्तदभावं निवर्त्तयति । स च निवर्त्तमानः स्वव्याप्यं सात्मकत्वाभावमादाय निवर्त्तते इति सात्मकत्व सिद्धिस्तत्र इत्यप्यसारम् ; यतोनुमानान्तरेप्येवमविनाभावप्रसिद्धः केवलव्यतिरेक्येव सर्वमनुमानं स्यात्, अन्वयमात्रेण तत्सिद्धावतिप्रसंगस्योक्तत्वात् ।
किंच, साध्यनिवृत्त्या साधन निवृत्तिर्व्यतिरेकः, स च क्वचित् कदाचित् सर्वत्र सर्वदा वा स्यात् ? न तावदाद्यः पक्षः; तथा व्यतिरेकस्य साधनाभासेपि सम्भवात् । द्वितीयपक्षोप्ययुक्तः; साकल्येन व्यतिरेकप्रतिपत्तेः प्रत्यक्षादिप्रमाणतः परेषामन्वयप्रतिपत्ते रिवासम्भवात् ।
एतेन पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टमन्वयव्यतिरेक्यनुमानं प्रत्याख्यातम्; पक्षद्वयोप क्षिप्तदोषानुषङ्गात् ।
अग्निका प्रभाव व्याप्त है । ( अर्थात् अग्निका प्रभाव है तो अवश्य ही धूमका प्रभाव • होगा ) जीवित शरीर में प्राणादि प्रभाव के विरुद्ध प्राणादिका सद्भाव प्रतीति में आता है, अतः वह प्राणादिके प्रभावकी निवृत्ति करता है, और प्राणादिका प्रभाव निवृत्त होता हुआ अपने व्याप्य सात्मकत्वके अभावको लेकर निवृत्त होता है इसप्रकार उक्त अनुमानमें सात्मकत्वकी ( आत्मा सहितत्वकी ) सिद्धि हो जाती है ।
जैन - यह कथन असार है, क्योंकि इस तरह की मान्यतासे अन्वय रहित अनुमानांतर में भी ग्रविनाभाव प्रसिद्ध हो जाने से सभी अनुमान केवलव्यतिरेकी ही बन जाते हैं, क्योंकि अन्वयमात्रसे अविनाभाव की सिद्धि करनेमें अतिप्रसंग आता है ऐसा कह चुके हैं ।
तथा साध्यकी निवृत्तिसे साधनकी निवृत्ति होना व्यतिरेक है यह व्यतिरेक कहीं पर कदाचित होता है या सर्वत्र सदा ही होता है ? प्रथम पक्ष प्रसत् है, क्योंकि उस प्रकारका व्यतिरेक साधनाभास में (झूठे हेतु वाले अनुमान में ) भी संभव है । द्वितीय पक्ष भी अयुक्त है, क्योंकि सर्वत्र सर्वदा पूर्णरूप से व्यतिरेककी प्रतिपत्ति प्रत्यक्षादि प्रमाणसे होना अशक्य है, जैसे कि परवादी यौगादिके प्रन्वयकी प्रतिपत्ति होना असंभव है ।
जिस तरह केवलान्वयी और केवलव्यतिरेकीरूप पूर्ववत् आदि अनुमानोंकी सिद्धि नहीं होती उसी तरह पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतोदृष्ट नामा केवलान्वयव्यतिरेकी । अनुमान भी सिद्ध नहीं होता, उसमें भी प्रथम दो अनुमानोंमें दिये गये दोष आते हैं ।
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