Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
View full book text
________________
प्रमेयकमलमार्तण्डे एतेनान्ताप्तिरपि चिन्तिता । न खलु प्रत्यक्षादितः सापि प्रसिद्धयति । तन्न पूर्ववच्छेषवदिति सूक्तम् ।
यच्चान्यदुक्तम्-'पूर्ववत्सामान्यतोदृष्टं चेति चशब्दो भिन्नप्रक्रमः ‘सामान्यतः' इत्यस्यानन्तरं द्रष्टव्यः । ततोयमर्थः-पूर्ववत्पक्षवत्सामान्यतोपि न केवलं विशेषतो दृष्टं विपक्षे। अनेन केवलव्यतिरेकी हेतुर्दशितः-'सात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्त्वात्' इत्यादिः; तदप्ययुक्तम्; यतः प्राणादेरन्वयाभावे कुतोऽविनाभावावगतिः ? व्यतिरेकाच्चेत्; तथाहि-यस्माद् घटादेः सात्मकत्व निवृत्ती प्राणादयो नियमेन निवर्तन्ते तस्मात्सात्मकत्वाभावः प्राणाद्यभावेन व्याप्तो धूमाभावेनेव पावकाभावः । जीव
__ योग-विपक्षमें बाधक प्रमाणका सद्भाव होनेसे ही व्याप्तिकी सिद्धि होती है अर्थात् अमुक हेतुका विपक्षमें जाना प्रमाणसे बाधित है इस प्रकार बाधक प्रमाणके वशसे व्याप्ति का ग्रहण हो जाता है ?
जैन-तो फिर उतनेसे पर्याप्त हो जानेसे अन्वयके प्रतिपादनसे आपका क्या प्रयोजन सधता है ? कुछ भी नहीं ।
इसीप्रकार सकलव्याप्तिरूप अन्वयके निरसनसे अन्तर्व्याप्तिरूप अन्वयका निरसन भी हो जाता है, क्योंकि उसकी भी प्रत्यक्षादिप्रमाणसे सिद्धि नहीं होती । अतः पूर्ववत् शेषवत् अनुमानका प्रभेद सिद्ध नहीं होता है।।
यौग-अन्य प्रतिपादन भी पाया जाता है कि-"पूर्ववत् सामान्यतो दृष्टं च" इस वाक्यमें आगत च शब्द भिन्न प्रक्रममें है उसका अर्थ "सामान्यतः" इस पदके अनंतर करना चाहिये, इस तरहकी वाक्य रचनासे यह अर्थ होता है कि पूर्ववत् ( अर्थात् पक्षवत् ) विपक्ष में सामान्यतः भी देखा जाता है केवल विशेषतः नहीं। इससे केवल व्यतिरेको हेतुका प्रतिपादन होता है, इस हेतुका उदाहरण-जीवित शरीर आत्मसहित है, क्योंकि प्राणादिमान् है । इत्यादि ।
__ जैन-यह प्रतिपादन भी प्रयुक्त है, प्राणादिमत्व हेतुमें अन्वयका तो अभाव है अतः वहां पर अविनाभावका बोध किससे हो सकेगा ?
__यौग-व्यतिरेकसे हो जायगा, इसीको बताते हैं—जिस कारण घट आदि पदार्थसे आत्मासहितपना निवृत्त होनेपर प्राणादि नियमसे निवृत्त हो जाते हैं उसीकारण अात्मासहितपने का अभाव प्राणादिके अभावसे व्याप्त है, जैसे कि धूमके अभावसे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org