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प्रमेयकमलमातं ण्डे
'ननु प्रसिद्ध धर्मीत्यादिपक्षलक्षणप्रणयनमयुक्तम् अस्ति सर्वज्ञ इत्याद्यनुमानप्रयोगे पक्षप्रयोगस्यैवासम्भवात् अर्थादापन्नत्वात्तस्य । अर्थादापन्नस्याप्यभिधाने पुनरुक्तत्वप्रसङ्गः - " श्रर्थादापन्नस्य स्वशब्देनाभिधानं पुनरुक्तम्" [ न्यायसू० ५ | २ | १५ ] इत्यभिधानात् । तत्प्रयोगेपि च हेत्वादिवचनमन्तरेण साध्याप्रसिद्ध ेस्तद्वचनादेव च तत्प्रसिद्ध र्व्यर्थः पक्षप्रयोगः' इत्याशङ्कय साध्यधर्माधारेत्यादिना प्रतिविधत्त े
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साध्यधर्माधारसन्देहापनोदाय गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनम् ॥ ३४ ॥
साध्यधर्मोऽस्तित्वादिः, तस्याधार श्राश्रयः यत्रासौ साध्यधर्मो वर्त्तते तत्र सन्देहः - किमसौ साध्यधर्मोऽस्तित्वादिः सर्वज्ञे वर्त्त ते सुखादी वेति, तस्यापनोदाय गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनम् ।
अर्थात् जहां जहां धूम है वहां वहां पर्वत है ऐसी व्याप्ति नहीं होती अपितु जहां जहां धूम है वहां वहां साध्य धर्म अग्नि है ऐसी व्याप्ति ही घटित होती है । इसका भी कारण यह है कि धर्मीके साथ हेतुका प्रन्वय प्रसिद्ध है | जैसे शब्द अनित्य है ( धर्मी) क्योंकि वह कृतक है ( हेतु ) इस अनुमानके कृतकत्व हेतुका अन्वय केवल अनित्यत्वादिविशिष्ट शब्द में ही नहीं है । अर्थात् जहां जहां कृतकत्वादि प्रतीत होता है वहां वहां शब्दरूप धर्मी ही प्रतीत होवे ऐसी बात नहीं, कृतकत्व तो शब्दके समान घट पट आदि अनेकों के साथ रहता है ।
बौद्ध – “प्रसिद्धो धर्मी " इसप्रकार से पक्षका लक्षण करना प्रयुक्त है, क्योंकि " सर्वज्ञ है" इत्यादि अनुमान प्रयोगमें पक्षका प्रयोग होना ही असंभव है, पक्ष तो अर्थादापन्न ही है (प्रकरण से ही गम्य है) प्रर्थादापन्न का भी कथन करे तो पुनरुक्त दोष आयेगा "अर्थादापन्नस्य स्वशब्देनाभिधानम् पुनरुक्तम्" ऐसा न्याय सूत्रमें कहा है । तथा पक्षका प्रयोग करनेपर भी जब तक हेतु वचन प्रयुक्त नहीं होता तब तक साध्य की सिद्धि नहीं होती, हेतु वचनसे ही साध्य सिद्धि होती है अतः पक्षका प्रयोग करना व्यर्थ है ।
जैन- - अब इसी शंका का निरसन करते हैं
साध्य धर्माधार संदेहापनोदाय गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनम् ||३४|
सूत्रार्थ - साध्य धर्म के आधारका संदेह दूर करनेके लिये गम्यमान अर्थात् जाने हुए भी पक्षका कथन करना आवश्यक है । अस्तित्वादि साध्यका धर्म होता है उसका आधार या आश्रय कि जहां पर साध्य धर्म रहता है उसमें संशय प्रादुर्भूत
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