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प्रमेयकमलमार्तण्डे इत्याद्यभिधानानां तत्रोपलम्भात् । परानुग्रहप्रवृत्तानां शास्त्रकाराणां प्रतिपाद्यावबोधनाधीनधियां शास्त्रादौ प्रतिज्ञाप्रयोगो युक्तिमानेवोपयोगित्वात्तस्येत्यभिधाने वादेपि सोऽस्तु तत्रापि तेषां तादृशत्वात् । अमुमेवार्थ को वेत्यादिना परोपहसनव्याजेन समर्थयते
को वा त्रिधा हेतुमुक्त्वा समर्थयमानो न पक्षयति ? ॥३६।। को वा प्रामाणिकः कार्यस्वभावानुपलम्भभेदेन पक्षधर्मत्वादिरूपत्रयभेदेन वा त्रिधा हेतुमुक्त्वाऽ. सिद्धत्वादिदोषपरिहारद्वारेण समर्थयमानो न पक्षयति ? अपि तु पक्षं करोत्येव । न चाऽसमर्थितो हेतुः साध्य सिद्धयङ्गमतिप्रसङ्गात् । ततः पक्षप्रयोगननिच्छता हेतुमनुक्त्वैव तत्समर्थनं कर्त्तव्यम् । हेतोरवचने
प्रसंगमें प्रतिज्ञा अर्थात् पक्षप्रयोग नहीं होता हो सो भी बात नहीं “अग्निरत्र धूमात्" वृक्षोयं शिशपात्वात् यहां पर धूम होनेसे अग्नि है, शिंशपा होनेसे यह वृक्ष है इत्यादि रूपसे पक्षके प्रयोग शास्त्र कथामें उपलब्ध होते हैं ।
बौद्ध-शास्त्रकार जन शिष्योंको बोध किस प्रकार हो इस प्रकारके विचारमें लगे रहते हैं अतः परानुग्रहको करनेवाले वे शास्त्रादिमें यदि प्रतिज्ञाका प्रयोग करते हों तो युक्तिसंगत है, क्योंकि प्रतिपाद्य-शिष्यादिके लिये पक्ष प्रयोग उपयोगी है ?
जैन- तो यही बात वादमें है, वादमें भी वादीगण परानुग्रह पक्ष एवं प्रतिपाद्य को अवबोधन कराने में लगे रहते हैं अत: वाद कालमें भी पक्षका प्रयोग नितांत आवश्यक है । इसी अर्थका उपहास करते हुए समर्थन करते हैं
___ को वा त्रिधा हेतु मुक्त्वा समर्थयमानो न पक्षयति ॥३६॥
सूत्रार्थ-कौन ऐसा बुद्धिमान है कि जो तीन प्रकारके हेतुको कहकर पुनश्च उसका समर्थन करता हुआ भी पक्षका प्रयोग न करे ? [ अपितु अवश्य ही करे ] ऐसा कौन प्रामाणिक बुद्धिमान पुरुष है जो कार्य हेतु, स्वभाव हेतु एवं अनुपलभ हेतु इसप्रकार हेतु के तीन भेदोंको कथन करता है अथवा पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्ष व्यावृत्तिरूप हेतुके तीन स्वरूपका प्रतिपादन असिद्धादि दोषोंका परिहार करनेके लिये करता है वह पुरुष पक्षका प्रयोग न करे ? अर्थात् वह अवश्य ही पक्षका प्रयोग करता है। असमर्थित हेतु साध्यसिद्धि का निमित्त होना भी असंभव है, क्योंकि अतिप्रसंग पाता है अर्थात् समर्थन रहित हेतु साध्यसिद्धिके प्रति निमित्त हो सकता है तो हेत्वाभास भी साध्यसिद्धिके प्रति निमित्त हो सकता है क्योंकि उसके स्वरूपका प्रति
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