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प्रमेयकमलमार्तण्डे
प्रसिद्धो धर्मी ॥२७॥ तत्प्रसिद्धिश्च क्वचिद्विकल्पतः क्वचित्प्रत्यक्षादितः क्वचिच्चोभयत इति प्रदर्शनार्थम्'प्रत्यक्षसिद्धस्यैव धमित्वम्' इत्येकान्तनिराकरणार्थं च विकल्प सिद्ध इत्याद्याह
विकल्पसिद्ध तस्मिन् सत्त तरे साध्ये ।।२८।।
अस्ति सर्वज्ञः नास्ति खरविषाणमिति ।।२९।। विकल्पेन सिद्धे तस्मिन्धर्मिणि सत्ते तरे साध्ये हेतुसामर्थ्यतः । यथा अस्ति सर्वज्ञः सुनिश्चितासम्भवबाधकप्रमाणत्वात्, नास्ति खरविषाणं तद्विपर्ययादिति । न.खलु सर्वज्ञखरविषाणयोः सदसत्तायां साध्यायां विकल्पादन्यतः सिद्धिरस्ति; तत्रेन्द्रियव्यापाराभावात् ।
प्रसिद्धो धर्मी ।।२७।। सूत्रार्थ- धर्मी प्रसिद्ध होता है। उसकी प्रसिद्धि किसी अनुमानमें विकल्पसे होती है, किसी में प्रत्यक्षादिसे होती है और किसीमें उभयरूपसे होती है ऐसा समझानेके लिये तथा "धर्मी प्रत्यक्ष सिद्ध ही होता है" ऐसे एकांतका निराकरण करनेके लिये आगेका सूत्र प्रसूत होता है।
विकल्पसिद्धे तस्मिन् सत्तेतरे साध्ये । २८।।
अस्ति सर्वज्ञो नास्ति खरविषाणम् ।।२६।। सूत्रार्थ-जब धर्मी विकल्प सिद्ध होता है तब साध्य सत्ता और असत्ता (अस्तित्व और नास्तित्व) दो रूप हो सकता है अर्थात् सत्तारूप भी होता है और कहीं असत्तारूप भी। जैसे “सर्वज्ञ है" ऐसे प्रतिज्ञारूप वाक्यमें सत्ता साध्य है, तथा "खर विषाण (गधेके सींग) नहीं हैं ऐसे प्रतिज्ञा वाक्यमें असत्ता साध्य है।
धर्मीके विकल्पसे सिद्ध रहनेपर (अर्थात् संवाद और असंवादरूपसे अनिश्चित रहने पर) सत्ता और असत्ताको सिद्ध करने के लिए हेतुमें सामर्थ्य हुआ करता है । जैसे-सर्वज्ञ है, क्योंकि सुनिश्चितपनसे उसमें बाधक प्रमाणका अभाव है, इस अनुमान में सत्ताको साध्य बनाया। खरविषाण नहीं है क्योंकि उसके माननेमें प्रत्यक्ष प्रमाण बाधक है । इस अनुमानमें असत्ताको साध्य बनाया। सर्वज्ञकी सत्तारूप साध्य में और खरविषाणकी असत्तारूप साध्य में विकल्पको छोड़कर अन्य कोई प्रमाणसे सिद्धि नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञ और खरविषाणमें इन्द्रिय प्रत्यक्ष का व्यापार ही नहीं है ।
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