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अविनाभावादीनां लक्षणानि
साध्यं धर्मः क्वचित्तद्विशिष्टो वा धर्मी ॥२५॥ क्वचिद्वयाप्तिकाले साध्यं धर्मो नित्यत्वादिस्तेनैव हेतोर्व्याप्तिसम्भवात् । प्रयोगकाले तु तेन साध्यधर्मेण विशिष्टो धर्मी साध्यमभिधीयते, प्रतिनियतसाध्यधर्मविशेषणविशिष्टतया हि धर्मिणः साधयितुमिष्टत्वात् साध्यव्यपदेशाविरोधः। अस्यैव पर्यायमाह
पक्ष इति यावत् ॥२६॥ ननु च कथं धर्मी पक्षो धर्मर्मिसमुदायस्य तत्त्वात्; तन्न; साध्यधर्मविशेषणविशिष्टतया हि धर्मिणः साधयितुमिष्टस्य पक्षाभिधाने दोषाभावात् ।
स च पक्षत्वेनाभिप्रेत:
साध्यं धर्मः क्वचित तद्विशिष्टो वा धर्मी ।।२५।। सूत्रार्थ-कहीं धर्मको साध्य बनाते हैं और कहीं धर्म विशिष्ट धर्मीको साध्य बनाते हैं। कहीं पर अर्थात् व्याप्तिकालमें (जहां जहां साधन होता है वहां वहां साध्य अवश्य होता है इत्यादि रूपसे साध्य साधनका अविनाभाव दिखलाते समय) नित्यत्वादि धर्म ही साध्य होता है, क्योंकि उसके साथ ही हेतुकी व्याप्ति होना संभव है। प्रयोगकालमें (अनुमानप्रयोग करते समय) तो उस साध्य धर्मसे युक्त धर्मीको साध्य बनाया जाता है, क्योंकि धर्मी प्रतिनियत साध्यधर्मके विशेषण द्वारा विशिष्ट होनेके कारण उसको सिद्ध करना इष्ट होता है अतः साध्य व्यपदेशका उसमें अविरोध है। धर्मीका नामांतर कहते हैं
पक्ष इति यावतु ॥२६॥ सूत्रार्थ-धर्मीका दूसरा नाम पक्ष भी है।
शंका-धर्मीको पक्ष किसप्रकार कह सकते हैं ? क्योंकि धर्म और धर्मीके समुदायका नाम पक्ष है।
समाधान- ऐसा नहीं, साध्य धर्मके विशेषण द्वारा युक्त होनेके कारण धर्मीको सिद्ध करना इष्ट रहता है अतः उसको पक्ष कहने में कोई दोष नहीं है। पक्षरूपसे स्वीकार किया
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