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प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्यविचारः
"वस्तुत्वे सति चास्यैवं सम्बद्धस्य च चक्षुषा । द्वयोरेकत्र वा दृष्टौ प्रत्यक्षत्वं न वार्यते ॥१॥ सामान्यवच्च सादृश्यमेकैकत्र समाप्यते । प्रतियोगिन्यदृष्टेपि तत्तस्मादुपलभ्यते ||२|| "
[ मी० श्लो० उपमान० श्लो० ३४-३५ ] इत्यस्य विरोधानुषंगात् । यथा च पूर्वोत्तरप्रत्ययाभ्यां गवयगवादिविशिष्टमप्रतिपन्नं सादृश्यमनेन प्रतीयते तथा पूर्वोत्तरपर्यायविशिष्टमेकत्वं प्रत्यभिज्ञानेन ।
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यदि च 'एकत्वज्ञानमेव प्रत्यभिज्ञा सादृश्यज्ञानं तूपमानम्' इत्यभ्युपगमः; तर्हि वैलक्षण्यज्ञानं किन्नाम प्रमाणं स्यात् ? यथैव हि गोदर्शनाहितसंस्कारस्य गवयदर्शिनः 'अनेन समानः सः' इति प्रतिपत्तिस्तथा महिष्यादिदर्शन: 'अनेन विलक्षणः सः' इति वैलक्षण्यप्रतीतिरप्यस्ति । साच न प्रत्यभिज्ञोपमानयोरन्यतरा तदेकत्वसादृश्याविषयत्वात् श्रतः प्रमाणान्तरं प्रमाणसंख्या नियमविघातकृद्भवेत्परस्य ।
ननु सादृश्याभावो वैलक्षण्यम्, तस्याभावप्रमाण विषयत्वान्न प्रमाण संख्या नियम विघातः; तर्हि वैलक्षण्याभावः सादृश्यमिति स एव दोषः । नन्वनेकस्य समानधर्मयोगः सादृश्यम्, तत्कथं वैलक्षण्याभावमात्रं स्यादिति चेत्; तर्हि वैलक्षण्यमपि विसदृशधर्मयोगः, तत्कथं सारस्याभावमात्रं स्यादिति समानम् ?
का विषय है, अतः प्रमाणांतर स्वरूप प्रत्यभिज्ञान अवश्य ही परवादी ( मीमांसक ) के प्रमाणों की संख्या का व्याघात करता है ।
मीमांसक - सादृश्य का प्रभाव ही वैलक्षण्य है और वह अभाव प्रमाण के द्वारा जाना जाता है । अतः हमारे छह प्रमाण संख्या का व्याघात नहीं होता है । जैन - तो वैलक्षण्य का प्रभाव सादृश्य है सादृश्य के अभाव होने से उसको ग्रहण करने वाला जाता है और प्रमाण संख्या का व्याघात होना रूप मीमांसक - अनेक गो रोझ आदि के
कहलाता है वह वैलक्षण्य का अभाव रूप कैसे हो सकता है ?
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ऐसा भी कह सकते हैं इस तरह उपमा प्रमाण का भी अभाव हो वही दोष तदवस्थ रहता है । समान धर्म का योग होना सादृश्य
जैन – तो वैलक्षण्य भी विसदृश धर्म का योग स्वरूप है, उसको सादृश्याभाव रूप किस प्रकार मान सकते हैं ? इस प्रकार समान ही प्रश्नोत्तर है । इस प्रकार मीमांसक के प्रत्यभिज्ञान को उपमा में अंतर्भाव करने के अभिप्राय का निराकरण करने से
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