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पूर्ववदाद्यनुमानत्रैविध्य निरासः दिति । पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोऽदृष्टमन्वयव्यतिरेकि, यथा विवादास्पदं तनुकरणभुवनादि बुद्धिमकारणं कार्यत्वादिभ्यो घटादिवत् । यत्पुनर्बुद्धिमत्कारणं न भवति न तत्कार्यत्वादिधर्माधारो यथात्मादिः' इति ।
तदप्येतेन प्रत्याख्यातम्; सर्वत्रान्यथानुपपन्नत्वस्यैव हेतुलक्षणतोपपत्तेः, तस्मिन्सत्येव हेतोर्गमकस्वप्रतीतेः।
पूर्ववत सामान्यतोदृष्ट केवलव्यतिरेकी अनुमान-जीवित शरीर प्रात्मा सहित है, क्योंकि श्वास आदि प्राण पाये जाते हैं। इसमें केवल व्यतिरेक ही पाया जाता है अतः केवलव्यतिरेको अनुमान कहलाता है। पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतोदृष्टअन्वयव्यतिरेकी अनुमान-विवाद ग्रस्त, शरीर, पृथ्वी, पर्वतादि पदार्थ बुद्धिमान कारणयुक्त होते हैं क्योंकि कार्यत्वादि स्वरूप हैं, जैसे घट आदि पदार्थ कार्यत्वादि धर्मयुक्त होने से बुद्धिमान कारण युक्त होते हैं जो बुद्धिमान कारण पूर्वक नहीं होते वे कार्यत्वादि धर्म युक्त भी नहीं होते, जैसे प्रात्मादि पदार्थ कार्यत्वादिसे शून्य होने के कारण बुद्धिमान कारण पूर्वक नहीं हैं। इसमें अन्वय और व्यतिरेक दोनों पाये जाते हैं अतः केवलान्वय व्यतिरेकी अनुमान कहलाता है ।
विशेषार्थ-न्याय दर्शनमें अनुमानके तीन भेद माने हैं-केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी और केवलान्वयव्यतिरेकी, इनका विस्तृत नाम विभाजन-पूर्ववत शेषवत केवलान्वयी, पूर्ववत् सामान्यतोदृष्ट केवलव्यतिरेकी, और पूर्ववत शेषवत सामान्यतोदृष्ट केवलान्वयव्यतिरेकी । अनुमान के पांच अवयवोंमें से [पक्ष, हेतु, दृष्टांत, उपनय और निगमन] सर्व प्रथम जिसका प्रयोग हो वह पक्ष “पूर्व" कहलाता है यह प्रत्येक अनुमानमें पाया जाने से सभी अनुमान पूर्ववत् हैं। शेषवत् शब्दसे यहां पर दृष्टांत अर्थ इष्ट है और “सामान्यतोदृष्ट" पदका अर्थ है साधन सामान्यका साध्यसामान्यके साथ व्याप्त रहना। जिसमें अकेली अन्वयव्याप्ति पायी जाय उसे केवलान्वयी अनुमान कहते हैं, तथा जिसमें अकेली व्यतिरेकव्याप्ति पायी जाय उसे केवल व्यतिरेकी अनुमान एवं जिसमें उभय व्याप्ति हो उसे केवला वयव्यतिरेकी अनुमान कहते हैं। न्याय दर्शनका प्रमुख नथ गौतम ऋषि प्रणीत न्याय सूत्र के "प्रत्यक्ष पूर्वकं त्रिविध मनुमानं पूर्ववच्छेषवत् सामान्यतोदृष्टं च ।।१।१।५।। अर्थ में विविध मतभेद हैंभाष्यकार के मतानुसार जब कारणसे कार्यका अनुमान करते हैं उस अनुमानको
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