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प्रमेयकमलमार्तण्डे
निवृत्तिमात्रं वा ? प्रथमपक्षे परमतप्रसङ्गः अभावस्य भावान्तरस्वभावतास्वीकारात् । द्वितीयपक्षे तु स तथाविधः प्रतिपन्नः, न वा ? न प्रतिपन्नश्चेत्; तहि विपक्षाभावसन्देहाव्यतिरेकाभावोपि सन्दिग्ध इति केवलान्वयोपि तादृगेव। अथ प्रतिपन्नः; स यदि साध्यनिवृत्त्या साधननिवृत्त्याधारः प्रतिपन्नः; तहि स एव विपक्षः, कथं विपक्षाभावो यतो व्यतिरेकाभावः ? साध्यसाधनाभावाधारतया निश्चितस्य
जो जिसका व्यापक होता है वह उसके अभावमें होता हो ऐसा तो देखा नहीं जाता, क्या वृक्षत्वरूप व्यापकके अभावमें शिशपारूप व्याप्य होता है ? अर्थात् नहीं होता। अतः यदि वृक्षत्वादि व्यापक हेतु तथा प्राणादिमत्व आदि हेतु जो कि अन्वय रहित हैं उनको गमक मानना इष्ट है तो अविनाभावके साथ अन्वयकी व्याप्ति नहीं है ऐसा ही स्वीकार करना होगा । क्योंकि जो जिसके अभावमें होता है वह उसके साथ व्याप्त होकर नहीं रहता, जैसे गर्दभके अभावमें धूम होता है अतः उसके साथ व्याप्त नहीं है, अन्वयके प्रभावमें भी अविनाभाव पाया जाता है अतः उसके साथ व्याप्त नहीं है।
सद असद् वर्ग (सद्भावरूप पदार्थ और अभावरूप पदार्थ) किसी एक पूरुषके ज्ञानके पालंबनभूत हैं क्योंकि अनेक हैं, ऐसा केवलान्वयी अनुमान उपस्थित किया जाता है सो इसका अनेकत्वहेतु किसी कारणसे केवल अन्वय सहित है ? व्यतिरेकका अभाव होने से कहो तो व्यतिरेकका अभाव भी किस कारणसे है ? व्यतिरेकके विषयभूत विपक्षका अभाव होनेसे व्यतिरेक नहीं पाया जाता ऐसा कहे तो यह विपक्षाभाव क्या है इस पर विचार करना होगा-केवल पक्ष और सपक्ष होना विपक्षाभाव है अथवा निवृत्तिमात्र विपक्षाभाव है ? अर्थात् विपक्षका अभाव भावांतररूप है अथवा सर्वथा अभाव-तुच्छाभावरूप है ? प्रथम पक्ष कहे तो परमतका प्रसंग प्राप्त होता है (योगको हमारे जैनमत स्वीकृतिका प्रसंग प्राप्त होता है) क्योंकि आप यौगने यहां पर हम जैनके समान अभावको भावांतर स्वभाववाला स्वीकार कर लिया। दूसरा पक्ष-तुच्छाभावरूप निवृत्तिमात्रको विपक्षाभाव माने तो प्रश्न होता है कि इस तरह का विपक्षाभाव ज्ञात है कि नहीं ? यदि ज्ञात नहीं है तो विपक्षाभावमें संदेह होनेसे व्यतिरेकमें भी संदेह बना रहेगा और इस तरह की संदिग्ध अवस्थामें केवल अन्वय भी संदेहास्पद ही रहेगा। विपक्षका प्रभाव ज्ञात है ऐसा माना जाय तो यहां साध्यकी निवृत्तिसे साधनकी निवृत्ति हुई इस प्रकार आधार ज्ञात हो चुका है तो इसीको विपक्ष कहते हैं ? फिर
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