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पूर्ववदाद्यनुमानत्रविध्यनिरासः
विपक्षत्वात् । तच्च भाववदभावस्यापि न विरुध्यते कथमन्यथा 'सदसद्वर्गः कस्यचिदेकज्ञानालम्बनम्' इत्यत्रासन् पक्षः स्यात् ? असन् पक्षो भवति न विपक्ष इति किंकृतो विभागः ? अथाऽसद्वर्गशब्देन सामान्यसमवायान्त्यविशेषा एवोच्यन्ते, नाभाव:; तर्हि तद्विषयं ज्ञानं न कस्यचिदनेन प्रसाधितमिति सुव्यवस्थितम् ईश्वरस्याखिल कार्य का रणग्रामपरिज्ञानम् ! प्रागभावाद्यज्ञाने कार्यत्वादेरप्यज्ञानात् ।
विपक्षका प्रभाव कैसे हुआ जिससे कि व्यतिरेकाभाव सिद्ध हो सके ? क्योंकि साध्यसाधनके प्रभावका ग्राधाररूपसे निश्चित हुआ ही विपक्ष है । वह विपक्ष सद्भावके समान प्रभावरूप भी होता है इसमें कोई विरोध नहीं अन्यथा “सद् प्रसद् वर्ग एकके ज्ञानका प्रालंबनभूत है" इत्यादि श्रनुमानमें प्रसवर्ग रूप पक्ष ( पक्षका एक देश ) प्रभावरूप कैसे हो सकता था ? पक्ष तो प्रभावरूप हो सकता है और विपक्ष प्रभावरूप नहीं हो सकता ऐसा विभाग किस कारण से संभव है ?
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योग - प्रसवर्ग शब्द से यहां पर सामान्य, समवाय और अंत्यविशेषका ग्रहण किया जाता है प्रभाव का नहीं ?
जैन - तो फिर इस अनेकत्व हेतुवाले अनुमान द्वारा प्रभावरूप पदार्थका ज्ञान नहीं होता यही बात प्रसिद्ध हुई, इस तरह तो आपके ईश्वरके सकल कार्य कारण समूहका ज्ञान होना भली भांति सिद्ध होता होगा ? अर्थात् कथमपि सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि प्रागभाव आदि अभावरूप पदार्थ उसके द्वारा अज्ञात है ऐसा उक्त अनुमान सिद्ध कर रहा है और प्रागभावादि अज्ञात है तो कार्यत्वादि हेतु भी अज्ञात ही रहेंगे | अभिप्राय यह है कि संपूर्ण सत् प्रसत् पदार्थों का ज्ञान एक ईश्वरके ही है ऐसा अनेकत्व हेतुवाले अनुमान द्वारा सिद्ध करना योगको अभीष्ट था किन्तु यहां प्रभावरूप पदार्थ उक्त अनुमान में समाविष्ट नहीं है ऐसा यौगने कहा अतः आचार्य उपहास करते हैं कि इस तरह प्रभाव के अज्ञात रहने पर कार्यकारणभाव भी अज्ञात हो जाता है और फिर प्रापके ईश्वरके अखिल कार्य कारणोंका परिज्ञान सुव्यवस्थित होता है, यह उभय कथन तो हास्यास्पद ही है ।
दूसरी बात यह है कि ग्रनेकत्व हेतु वाले इस अनुमान में अभावको पक्ष और सपक्ष से बहिर्भूत किया जाय तो इसीसे अनेकत्वादि हेतु व्यभिचरित होते हैं, क्योंकि प्रभावरूप पदार्थ प्रागभाव आदि अनेक भेदरूप होने पर भी किसी एकके ज्ञानका लंबनभूत होना स्वीकार नहीं किया । यदि स्वीकार करते हैं तो प्रभावका पक्ष में
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