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पूर्ववदाद्यनुमानत्रैविध्य विरासः नासौ व्याप्तः स्यात् । यदभावे हि यद्भवति न तत्ते न व्याप्तम् यथा रासभाभावे भवन्धूमादिर्न तेन व्याप्तः, भवति चान्वयाभावेपि तदविनाभाव इति ।
सदसद्वर्गः कस्यचिदेकज्ञानालम्बनमनेकत्वात्' इत्ययं च हेतुः कुतः केवलान्वयी ? व्यतिरेकाभावाच्चेद्; अयमपि कुतः ? तद्विषयस्य विपक्षस्याभावाच्चेद; अथ कोयं विपक्षाभावः-पक्षसपक्षावेव,
भावार्थ-अनुमानमें अन्वयका कथन इसलिये करते हैं कि उसके बिना अविनाभावका निश्चय नहीं हो पाता ऐसा परवादी ने कहा तब प्राचार्य कह रहे कि अन्वयकी और अविनाभावकी परस्परमें व्याप्ति होवे तो ऐसा मान सकते हैं अन्यथा नहीं, किन्तु इन दोनोंकी वृक्षत्व और निबत्व कारण और कार्य आदिके समान परस्परमें व्याप्ति नहीं है । वृक्षत्व रूप व्यापक के हटते ही निंबत्वरूप व्याप्य हटता है अतः इनमें व्याप्तिका रहना संमत ही है, किन्तु अन्वय और अविनाभाव तो अव्यापक अव्याप्यरूप है अर्थात् अन्वयके हटते ही अविनाभाव हट जाता हो ऐसा नहीं है फिर भी एकके निवृत्तिसे दूसरे की भी निवृत्ति व्यर्थ ही मानी जाय तो अतिप्रसंग उपस्थित होगाचाहे जिस पदार्थ के हटने पर उससे अव्याप्त असंबद्ध ऐसे चाहे किसी पदार्थका हटना भी मानना होगा घट के हटते ही पटका हटना भी मानना होगा, इस तरह अव्यापकके निवृत्तिसे अव्याप्यकी निवृत्ति माननेका अतिप्रसंग पाता है।
यदि हटाग्रह से अन्वय और अविनाभावकी व्याप्ति माने अर्थात अन्वयके अभावमें अविनाभाव नहीं रहता ऐसा स्वीकार करे तो प्राणादिमत्व हेतुवाले अनुमानमें अन्वय नहीं होनेके कारण अविनाभावत्व भी नहीं रहेगा और इस तरह प्राणादिमत्व ग्रादि प्रसिद्ध हेतु अगमक ठहरेंगे । अभिप्राय यह है कि यह जीवित शरीर आत्मायुक्त है क्योंकि श्वास लेना आदि प्राणादिमान है, जो प्राणादिमान नहीं होता वह प्रात्मयुक्त भी नहीं होता जैसे पाषाणादि । इस अनुमानमें अन्वयका लेश भी नहीं है तो भी साध्य साधनका अविनाभाव मौजूद है अतः अन्वयसे ही अविनाभाव संबंध हो ऐसा कथन असत् सिद्ध होता है । प्राणादिमत्व आदि हेतु अपने साध्यको ( अात्मायुक्त होना आदिको) अवश्य हो सिद्ध करते हैं अतः ये हेतु अन्वयके नहीं रहते हुए भी गमक हैं ऐसा सभी वादी परवादी स्वीकार करते हैं, इसीलिये अन्वय और अविनाभावको परस्परमें व्याप्ति माननेसे जो हेतु अन्वय रहित हैं उनको आगमक होनेका प्रसंग पाता है।
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