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पूर्ववदाद्यनुमानत्रैविध्यनिरासः
३५५ ज्ञानं प्रत्यक्षम्'' [ न्यायसू० ११११४ ] इत्यभिधानात् । तस्य तत्सन्निकर्षे वा प्राणिमात्रस्याशेषज्ञत्वप्रसङ्गान्न कश्चिदीश्वराद्विशेष्येत ।
ननु साध्यसाधनयोः साकल्येन ग्रहणं सकलव्याप्तिग्रहणम् । साध्यं चाग्निसामान्यं साधनं च धूमसामान्यम्, तयोश्चानवयवयोरेकत्रापि साकल्येन ग्रहणमस्ति, विशेषप्रतिपत्तिस्तु सर्वत्र पक्षधर्मताबलादेवेति चेत्; तहि क्षणिकत्वादि साध्यम्, सत्त्वादि साधनम्, तयोश्चानवयवयोः प्रदीपादौ सहदर्शनादेव सकलव्याप्तिग्रहः किन्न स्यात् ? मानसप्रत्यक्षादपि व्याप्तिप्रतिपत्तावयमेव दोषः । तन्न प्रत्यक्षतः सकलव्याप्तिग्रहः । नाप्यनुमानतोऽनवस्थाप्रसंगात् ।
सकल व्याप्तिको जानना शक्य नहीं, क्योंकि चक्षु आदि इन्द्रियां संपूर्ण साध्य-साधनभूत पदार्थों के साथ सन्निकर्ष नहीं कर सकती अतः उनसे सकल व्याप्तिका ग्रहण होना बनता नहीं। इन्द्रियोंके विषयमें उक्त बात असत् भी नहीं है-न्याय सूत्र में कहा है कि इन्द्रिय और पदार्थके सन्निकर्षसे उत्पन्न व्यपदेश्य रहित अव्यभिचारी एवं व्यवसायात्मक ज्ञानको प्रत्यक्षप्रमाण कहते हैं। यदि ऐसा इन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान अखिल साध्यसाधनभूत पदार्थोंका सन्निकर्ष करता है ऐसा माने तो संपूर्ण प्राणीको सर्वज्ञ बन जानेका प्रसंग प्राप्त होगा, फिर तो किसी भी प्राणीका ईश्वरसे पृथक्करण नहीं हो सकेगा।
योग-साध्य-साधनका साकल्यरूपसे ग्रहण होना सकलव्याप्तिका ग्रहण कहलाता है। जैसे अग्निसामान्य साध्य है और धूमसामान्य साधन है इन दोनोंका एक अनुमानमें भी साकल्यरूपसे ग्रहण संभव है, हां यह बात जरूर है कि विशेषकी प्रतिपत्ति तो सर्वत्र हेतुके पक्षधर्मत्वरूप बलसे ही होती है ?
जैन-तो फिर इस तरह क्षणिकत्वादि साध्य है और सत्त्वादि साधन है इन दोनोंका ग्रहण दीपकादिमें एक साथ ही हो जाता है अतः उसीसे सकलव्याप्ति का ग्रहण क्यों नहीं होता ? इसप्रकार इन्द्रिय प्रत्यक्षसे सकल व्याप्तिका ग्रहण होना सिद्ध नहीं होता, ऐसे ही मानस प्रत्यक्षसे उसका ग्रहण होना माने तो यही दोष आता है अतः प्रत्यक्षसे सकलव्याप्तिका ग्रहण संभव नहीं है। अनुमानसे भी उसका ग्रहण नहीं होगा, अनुमानकी व्याप्तिको जाननेके लिये अन्य अनुमान चाहिये तो अन्य अनुमानको व्याप्तिको कौन जानेगा? उसके लिये पुनः अन्य अनुमान चाहिये इस तरह अनवस्था अाती है।
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