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हेतोः पाञ्चरूप्यखण्डनम्
३४१ लब्धि रेव हेतुः, सा च शब्दे यदि सिद्धा कथं नानित्यतासिद्धिः ? अथ लच्चिन्तासम्बन्धिपुरुषेणासौ प्रयुज्यत इति तत्रासिद्धा; तर्हि कथं न सन्दिग्धो हेतुर्वादिनं प्रति ? प्रतिवादिनस्त्वसौ स्वरूपासिद्ध एव; नित्यधर्मोपलब्धेस्तत्रास्य सिद्ध:। तन्न पंचरूपत्वमप्यस्य लक्षणं घटते अबाधित विषयत्वादेविचार्यमाणस्यायोगात्पक्षधर्मत्वादिवत् ।
यदि चैकस्य हेतोः पक्षधर्मत्वाद्यनेकधर्मात्मकत्व मिष्यते, तदाऽनेकान्तः समाश्रितः स्यात् । न च यदेव पक्षधर्मस्य सपक्षे एव सत्त्वम् तदेव विपक्षात्सर्वतोऽसत्त्वमित्यभिधातव्यम्; अन्वयव्यतिरेकयोर्भावाभावरूपयोः सर्वथा तादात्म्यायोगात्, तत्त्वे वा केवलान्वयी केवलव्यतिरेकी वा सर्वो हेतुः स्यात्, न त्रिरूपवान् ।
लब्धि को हेतु बनानेका प्रथम पक्ष अयुक्त है, तुच्छाभावरूप प्रसज्यप्रतिषेध वाली अनुपलब्धि साध्यकी सिद्धि नहीं कर सकती तथा इस अभावका निरसन भी हो चुका है । द्वितीय पक्ष-नित्यधर्मकी अनुपलब्धिरूप प्रभाव पर्युदास स्वरूप है ऐसा कहे तो उसका सीधा अर्थ अनित्यधर्मकी उपलब्धि होना है उसको यदि हेतु बनाया है तो वह शब्दमें सिद्ध ही है फिर उससे अनित्य साध्यकी सिद्धि क्यों नहीं होगी ?
यौग-प्रकरण समकी चिंता करनेवाले पुरुषद्वारा उक्त हेतु प्रयुक्त होता है । अतः उसमें असिद्धि है ?
जैन-तो फिर उक्त हेतु वादीके प्रति किसप्रकार संदिग्ध नहीं होगा ? अवश्य होगा। प्रतिवादीके तो यह हेतु स्वरूपसे ही प्रसिद्ध है, क्योंकि प्रतिवादी मीमांसक को शब्दमें नित्यधर्मकी उपलब्धि होती है । इसप्रकार हेतुका पंचरूपत्व लक्षण घटित नहीं होता है, इसके अबाधित विषयत्व आदि रूपत्वका विचार करने पर अभाव ही प्रतीत होता है जैसे कि बौद्धाभिमत पक्षधर्मत्वादिका अभाव है।
तथा पाप परवादी एक ही हेतुमें पक्षधर्मत्व आदि अनेक स्वभाव मानते हैं तो अनेकांतमतका आश्रय लेना सिद्ध होता है। ऐसा तो कह नहीं सकते कि जो पक्षधर्मका सपक्षमें सत्त्व है वही सब विपक्षसे असत्त्व है ? क्योंकि सपक्षसत्व भावरूप अन्वय है
और विपक्ष असत्त्व अभावरूप व्यतिरेक है इनका सर्वथा तादात्म्य नहीं होता, यदि तादात्म्य माने तो सभी हेतु केवलान्वयी बन जायेंगे अथवा केवल व्यतिरेकी बन जायेंगे, कोई भी हेतु त्रिरूपवान् अवशेष नहीं रहेगा (तीसरा हेतु केवलान्वयव्यतिरेकीउभयरूप)।
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