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हेतोः पाञ्चरूप्यखण्डनम्
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स्वसाध्येन प्रतिबन्धोऽभ्युपगम्यते; तर्हि साध्यधर्मिण्युपादीयमानो हेतुः कथं साध्यं साधयेत्, तत्र साध्यमन्तरेणाप्यस्य सद्भावाभ्युपगमात् ? तद्व्यतिरिक्त एव धर्म्यन्तरे साध्येनास्य प्रतिबन्धग्रहरणात् । न चान्यत्र साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुरन्यत्र साध्यं गमयत्यतिप्रसङ्गात् । ततः साध्यधर्मिण्येव तोर्व्याप्तिः प्रतिपत्तव्या ।
ननु यदि साध्यधर्मान्वितत्वेन साध्यधर्मिण्यसौ पूर्वमेव प्रतिपन्नः, तर्हि साध्यधर्मस्यापि पूर्वमेव प्रतिपन्नत्वाद्धेतोः पक्षधर्मताग्रहणस्य वैयर्थ्यम्; तदप्यसङ्गतम्; यतः प्रतिबन्धसाधकप्रमाणेन सर्वोपसंहारेण 'साधनधर्मः साध्यधर्माभावे क्वचिदपि न भवति' इति सामान्येन प्रतिबन्धः प्रतिपन्नः । पक्षधर्मताग्रहणकाले तु 'यत्रैव धर्मिण्युपलभ्यते हेतुस्तत्रैव साध्यं साधयति' इति पक्षधर्मताग्रहणस्य विशेषविषयप्रतिपत्तिनिबन्धनत्वान्नानुमानस्य वैयर्थ्यम् । न खलु विशिष्टधर्मिण्युपलभ्यमानो हेतुस्तद्गत
जैन - यह कथन असुन्दर है, साध्यधर्मी से पृथक् किसी अन्य धर्मी में हेतुका स्वसाध्यके साथ अविनाभाव स्वीकृत किया जाय तो साध्यधर्मी में प्रदत्त हेतु किस प्रकार साध्यको सिद्ध कर सकेगा ? क्योंकि साध्यके बिना भी वहां हेतुका रहना मान लिया, इस हेतुका साध्य के साथ ग्रविभाव ग्रहण तो विवक्षित साध्यधर्मीके व्यतिरिक्त अन्य धर्मी में ही हुआ है ! साध्याविनाभावपने से निश्चय तो अन्यत्र हो और वह हेतु अन्यत्र साध्यको सिद्ध करे ऐसा नहीं होता, अन्यथा अतिप्रसंग होगा । अतः साध्यधर्मीमें ही तुका अविनाभाव जानना आवश्यक है ।
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योग - साध्य धर्मी में हेतुका साध्यधर्मसे अन्वितपना पहले ही ज्ञात है तो साध्यधर्म भी पहले से ज्ञात ही रहेगा, फिर हेतुके पक्षधर्मत्वको ग्रहण करना व्यर्थ हो ठहरता है ?
जैन - यह कथन असंगत है, अविनाभाव संबंध को सिद्ध करनेवाले तर्क प्रमाण द्वारा सर्वोपसंहार से “साधनधर्म साध्यके अभाव में कहीं भी नहीं होता" इस प्रकार सामान्यतः अविनाभाव ज्ञात रहता है, जब पक्षधर्म ग्रहणका समय आता है तब जहां पर ही धर्मी में हेतु उपलब्ध होता है वहीं पर साध्यको सिद्ध करता है इसलिये पक्ष धर्मताका ग्रहण विशेष विषयकी प्रतिपत्तिका निमित्त है और इसीकारण से अनुमान की व्यर्थता नहीं होती या पक्षधर्मता ग्रहण व्यर्थ नहीं ठहरता है । विशिष्ट धर्मी में उपलभ्य - मान हेतु उसमें होनेवाले साध्यके बिना ही हो जाता है ऐसी बात तो नहीं है अन्यथा
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