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तर्कस्वरूपविचारः
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नाप्यवश्यतया तत्सद्भावे एव स्यादिति, अहेतोः खरविषाणवत्तस्यासत्त्वात् क्वचिदप्युपलम्भो न स्यात्, सर्वत्र सर्वदा सर्वाकारेण वोपलम्भः स्यात् । स्वभावश्च 'तद्वतीर्थस्याभावेपि यदि स्यात्तदार्थस्य निःस्वभावत्वं स्वभावस्य वाऽसत्त्वं स्यात्, तत्स्वभावतया चास्य कदाचिदप्युपलम्भो न स्यात् । उक्तञ्च
"कार्य धूमो हुतभुजः कार्यधर्मानुवृत्तितः । सम्भवंस्तदभावेपि हेतुमत्तां विलङ्घयेत् ॥'
[प्रमारणवा० ११३५] "स्वभावेप्यविनाभावो भावमात्रानुबन्धिनि । तदभावे स्वयं भावस्याभावः स्यादभेदतः ।।"
[प्रमाणवा० १।४० ] इति ।
अहेतुक धूमकी असत्व होने से कहीं पर भी उपलब्धि नहीं हो सकेगी अथवा सर्वत्र सर्वदा सर्वाकार से उपलब्धि होने लगेगी। कार्य हेतु के समान स्वभाव हेतु की भी बात है, यदि स्वभाव भी स्वभाववान् अर्थ के अभाव में रहेगा तो स्वभाववान् अर्थ निःस्वभाव बन जायगा अथवा स्वभाव का ही असत्व हो जायगा, फिर तो पदार्थ के स्वभावरूप से इसकी कहीं भी उपलब्धि नहीं हो सकेगी। कहा भी है-अग्नि के कार्य धर्म की अनुवृत्ति होनेसे धर्म उसका कार्य कहाता है, यदि वह अग्नि के अभाव में होता तो उसका कार्य नहीं कहा जाता ।।१।। स्वभाव हेतु की भी यही बात है भाव मात्र का अनुकरण करने वाले स्वभाव में अविनाभाव होता है अर्थात् स्वभाव और स्वभाववान में अभेद होने के कारण स्वभाव के अभाव में स्वभाववान का अभाव हो जाता है।
किन्तु शंकाकार का उपर्युक्त कथन ठीक नहीं है प्रत्यक्षादि से व्याप्ति का बोध होने पर भी केवल उस प्रत्यक्ष के काल में उपलब्ध व्यापक के साथ हो व्याप्य को व्याप्ति सिद्ध हो सकती है उसोका उस तरह से निश्चय हुअा है, तत् सदृश अन्य व्याप्यके साथ तो व्याप्ति का निश्चय नहीं हो सकता, यदि तत् सदृश अन्य व्याप्य की भी व्याप्ति गृहीत होती है ऐसा माना जाय तो उस व्याप्ति ग्राहक विकल्प रूप ज्ञानको अग्रहीतग्राहोपना कैसे नहीं होगा ? यदि किसो प्रदेश विशेष में प्रत्यक्ष द्वारा साध्यके साथ हेतु की व्याप्ति जानो जातो है और उससे अनुमान प्रमाण प्रवृत्त होता है उस ज्ञान को विशेष तो दृष्ट अनुमान कहना होगा न कि तर्क प्रमाण, क्योंकि उक्त ज्ञान द्वारा अन्य देश आदिमें स्थित साध्य के साथ इस हेतु की व्याप्ति सिद्ध नहीं होती।
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