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प्रमेयकमलमार्तण्डे
श्रावणत्वं हि श्रवणज्ञानग्राह्यत्वम्, तज्ज्ञानं च शब्दादात्मानं लभमानं तस्य ग्राहकम् नान्यथा, "नाकारणं विषयः" [ ] इत्यभ्युपगमात् । शब्दश्च नित्यस्तज्जननैकस्वभावो यदि; तर्हि श्रवणप्रणिधानात्पूर्वं पश्चाच्च तज्ज्ञानोत्पत्तिप्रसङ्गः। न ह्य विकले कारणे कार्यस्यानुत्पत्तिर्युक्ता अतत्कार्यत्वप्रसङ्गात् । प्रयोगः–यस्मिन्नविकले सत्यपि यन्न भवति न तत्तत्कार्यम् यथा सत्यप्यविकले कुलाले अभवन्पटो न तत्कार्यः, सत्यपि शब्दे पूर्व पश्चाच्चाविकले न भवति च तज्ज्ञानमिति । ननु च श्रोत्रप्रणिधानात्पूर्व पश्चाच्च तज्ज्ञानजननैकस्वभावोपि शब्दस्तन्न जनयत्यावृतत्वात्; तदप्यसङ्गतम्;
भावार्थ-शब्द अनित्य है क्योंकि वह श्रवणेन्द्रियका विषय है अथवा श्रवण ज्ञान द्वारा ग्राह्य है ऐसा एक अनुमान प्रमाण है इसमें शब्द पक्ष है, अनित्यत्व साध्य है एवं श्रावणत्व हेतु है, अब यह देखना है कि बौद्धके हेतुका त्रैरूप्य [पक्षधर्मत्व सपक्षसत्त्व और विपक्षव्यावृत्ति] लक्षण इस श्रावणत्व हेतु में है या नहीं, शब्द अनित्य है वैसे घट आदि पदार्थ भी अनित्य हैं अतः यहां पर घटादि सपक्ष कहलाये, आकाशादि नित्य होने से इसके विपक्ष हैं, इन पक्ष सपक्ष और विपक्षोंमेंसे पक्ष में रहने के कारण श्रावणत्व हेतुमें पक्षधर्मत्व तो है, किन्तु सपक्ष सत्त्व नहीं है, क्योंकि सपक्षभूत घट
आदिमें श्रावणपने का अभाव है [श्रवणेन्द्रिय का विषय या श्रवणेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होना नहीं है] इस तरह श्रावणत्व हेतुमें त्रैरूप्य लक्षणका अभाव है तो भी यह साध्यका [अनित्यत्वका] गमक है । इस पर बौद्ध कहता है कि यह हेतु असाधारण अनेकांतिक है क्योंकि विपक्षभूत आकाशादिके समान सपक्षसे भी यह हेतु व्यावृत्त होता है, जब कि इसे केवल विपक्षसे ही व्यावृत्त होना चाहिए ? आचार्यने कहा कि साध्यके अभाव में जो नियमसे नहीं होता ऐसा यह श्रावरणत्व हेतु कथमपि अनैकांतिक दोष युक्त नहीं हो सकता, क्योंकि हेतुका अन्यथानुपपन्नत्व लक्षण इसमें मौजूद है। इस श्रावणत्व हेतु का अर्थ श्रवणेन्द्रियजन्य ज्ञान द्वारा ग्राह्य होना है अर्थात् कर्णसे उत्पन्न हुए ज्ञानका जो विषय है उसको श्रावणत्व कहते हैं, श्रवणज्ञान शब्दसे उत्पन्न होगा क्योंकि बौद्धमतानुसार प्रत्येक ज्ञान जिस कारणसे उत्पन्न होता है उसीको जानता है अन्यको नहीं ऐसा माना है । इस श्रावणत्व हेतुके बारे में आगे और भी कहते हैं।
श्रवणज्ञान शब्दजन्य है तो वह शब्द नित्य ही उस ज्ञानको उत्पन्न करने का स्वभाववाला यदि हो तो श्रवणेन्द्रियके प्रणिधानके [कर्ण द्वारा विषयोन्मुख होनेके] पूर्व और पश्चात् में भी उक्त श्रवणज्ञान का उत्पन्न होने का प्रसंग आता है, अविकल कारणके रहते हुए तो कार्यकी अनुत्पत्ति युक्त नहीं अन्यथा वह उसका कार्य ही नहीं
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