________________
तोत्ररूप्य निरासः
आवरणं हि द्रष्टृदृश्ययोरन्तराले वर्तमानं वस्तु लोके प्रसिद्धम्, यथा काण्डपटादिकम् । श्रोत्रशब्दयोश्च व्यापकत्वे सर्वत्र सर्वदा तत्करणे कस्वभावयोरत्यन्तसंश्लिष्टयोः किं नामान्तराले वर्त्तत ? वृत्तौ वा तयोर्व्यापकत्वव्याघातः, तदवष्टब्धदेश परिहारेणानयोर्वर्तनादिति 'प्राप्तवचनादिनिबन्धनमर्थ ज्ञानमागमः ' ( परीक्षामु० ३।१०० ) इत्यत्र विस्तरेण विचारयिष्यामः । तन्नास्याऽऽवृतत्वात्तज्ज्ञानाजनकत्वं किन्त्वसत्त्वादेव, इति श्रावरणत्वादेः सपक्षविपक्षाभ्यां व्यावृत्तत्वेपि पक्षे साध्याविनाभावित्वेन निश्चित
३२५
ठहरेगा, अर्थात् शब्द नित्य ही श्रवणज्ञानको उत्पन्न करनेका स्वभाववाला है तो उससे सदा वह ज्ञान उत्पन्न होना चाहिए कारण परिपूर्ण होवे और कार्य उत्पन्न न हो तो उसका वह कार्य ही नहीं है ? अनुमान प्रसिद्ध विषय है कि श्रवणज्ञान शब्दका कार्य नहीं है, क्योंकि शब्दके रहते हुए भी पूर्व और पश्चात् में उत्पन्न नहीं होता, जिस अविकल कारणके रहते हुए भी जो नहीं होता वह उसका कार्य नहीं है जैसे अविकल कारणभूत कुंभकार के रहते हुए भी पट [ वस्त्र ] उत्पन्न नहीं होता अतः उसका कार्य नहीं है । शब्द रहते हुए भी पूर्व में और पश्चात् में उक्त ज्ञान नहीं होता अतः उसका वह कार्य नहीं है ।
शंका — श्रोत्र प्रणिधान के [कर्ण द्वारा विषयोन्मुख होनेके ] पूर्व में एवं पश्चात् में उस ज्ञानको उत्पन्न करने रूप स्वभाववाला शब्द अवश्य है किन्तु वह प्रावृत्त रहने के कारण उक्त ज्ञानको उत्पन्न नहीं कर पाता ?
समाधान - यह कथन असंगत है, दृष्टा और दृश्य [ देखने वाला व्यक्ति चौर देखने योग्य पदार्थ ] के अंतराल में विद्यमान वस्तुको ग्रावरण कहते हैं जिसप्रकार sisपटादिक [ वस्त्रादि ] आवरण प्रसिद्ध है । किन्तु यौगमतानुसार शब्द और श्रवणेन्द्रिय सर्वत्र सर्वदा व्यापक हैं एवं श्रवणज्ञानको उत्पन्न करने रूप स्वभाव वाले तथा अत्यंत संश्लिष्टभूत हैं, अतः इनके अंतराल में कौनसा प्रावरण विद्यमान होगा ? अर्थात् सर्वथा नहीं होगा । यदि शब्द और श्रोत्र में अंतराल एवं आवरणका सद्भाव स्वीकार करेंगे तो वे दोनों शब्द और श्रोत्रके व्यापक माननेका सिद्धान्त नष्ट होगा ? क्योंकि शब्द र श्रोत्रके प्रावरणभूत वस्तुके देशको छोड़कर रहने से व्यापक सिद्ध होते हैं । इसका विशेष विवरण आगे " प्राप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागम:" इस प्रकरण में करेंगे । अतः शब्दप्रावृत होने से श्रवण ज्ञानको उत्पन्न करता ऐसा कथन असत् है, सत्य तो यह है कि असत्त्व होने के कारण शब्द श्रवणज्ञानको सदा उत्पन्न नहीं कर पाता । इस प्रकार सिद्ध होता है कि श्रावरणत्व हेतु सपक्ष और विपक्षसे
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org