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प्रमेयकमलमार्तण्डे
तर्क प्रमाण का सारांश
जिन प्रमाणों को सिर्फ जैन ही मानते हैं ऐसे प्रमाण तीन है, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क, तर्क का ही दूसरा नाम "ऊह" है स्मृति और प्रत्यभिज्ञान का कथन पहले हो चुका है, अब यहां पर तर्क प्रमाण पर विचार करते हैं-तर्क का लक्षणः
उपलंभानुपलंभ निमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः ।।
उपलंभ का अर्थ प्रत्यक्ष न होकर निश्चय है और अनुपलंभ का अर्थ प्रत्यक्ष न होकर अनिश्चय है ऐसा समझना चाहिए एक बार या पुनः पुनः साध्य और साधन को देखकर जो ज्ञान पैदा होता है वह तर्क प्रमाण है, जहां जहां साधन है वहां वहां साध्य अवश्य है ऐसा अन्वय और जहां जहां साध्य नहीं है वहां वहां साधन भी नहीं होता, इस प्रकार के व्यतिरेक का जो ज्ञान होता है उस ज्ञान को तर्क कहते हैं, व्याप्ति इस प्रमाण का विषय है जो किसी भी प्रमाण के द्वारा ग्रहण नहीं होता है, बौद्ध प्रत्यक्ष के बाद विकल्प ज्ञान पैदा होता है वह व्याप्ति को विषय करता है ऐसा मानते हैं किन्तु वह गलत है, क्योंकि प्रत्यक्ष के पीछे होने वाला विकल्प सिर्फ प्रत्यक्ष के विषय को ही ग्रहण करता है, उसकी सर्वोपसंहारपने से व्याप्ति का ज्ञान कराने में सामर्थ्य नहीं है योगी प्रत्यक्ष से व्याप्ति का ग्रहण होता है ऐसा मानना भी सर्वथा असत्य है क्योंकि वह निर्विकल्प है किसी की मान्यता है कि मानस प्रत्यक्ष के द्वारा व्याप्ति का ग्रहण होता है किन्तु वह भी ठीक नहीं है क्योंकि परमत में मानस प्रत्यक्ष को भी मन्निकर्ष से पैदा होना माना है और मनको अणु बराबर छोटा माना है ऐसा मन सर्वत्र रहने वाली व्याप्ति को ग्रहण नहीं कर सकता। इसी प्रकार कोई मतवाले प्रत्यक्ष के द्वारा व्याप्ति का ग्रहण होना मानते हैं वह भी अयुक्त है, प्रत्यक्ष वर्तमान की वस्तु को जानता है । वह सर्व देश और सर्वकाल में होने वाली व्याप्ति को कैसे ग्रहण करेगा ? तर्क प्रमाण को प्रत्यक्ष प्रमाण का फल मानने वाले देवानां प्रियः भी मौजूद है । आचार्य ने परवादी से प्रश्न किया है कि आप सब लोग तर्क को प्रमाण क्यों नहीं मानते हैं ? क्या उसका विषय ग्रहीत ग्राही है या वह विसंवाद पैदा करता है अथवा प्रमाण के विषयका परिशोधक है अत: अप्रमाण है ? ग्रहीत ग्राही तो नहीं है अभी तक यह अच्छी तरह सिद्ध कर दिया है कि इस तर्क प्रमाण के विषय को कोई भी प्रमाण ग्रहण करने की
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