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प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्यविचारः
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किञ्च, अर्थे सादृश्यव्यवहारस्य सदृशाकारनिबन्धनत्वे सदृशाकारेपि कुतस्तद्वयवहारसिद्धिः ? अपरतद्गतसदृशधर्मदर्शनाच्चेत्; अनवस्था। धर्मिसादृश्यव्यवहारे चान्योन्याश्रयः । तन्नेयं सादृश्यप्रत्यभिज्ञा लिङ्गजाभ्युपगन्तव्या।।
ननु गोदर्शनाहितसंस्कारस्य पुनर्गवयदर्शनाद्गवि स्मरणे सति 'अनेन समानः सः' इत्येवमाकारस्य ज्ञानस्योपमानरूपत्वान्न प्रत्यभिज्ञानता । सादृश्यविशिष्टो हि विशेषो विशेषविशिष्टं वा सादृश्यमुपमानस्यैव प्रमेयम् । ऊक्त च
दूसरी बात यह है कि पदार्थ में सदृशता का व्यवहार सदृश आकार के निमित्त से होता है ऐसा मानते हैं, तो स्वयं सदृश आकार में किससे सदृशता का व्यवहार होवेगा ? अन्य किसी वस्तु में होने वाले सदृश धर्म के देखने से कहो तो अनवस्था आती हैं और धर्मी के सादृश्य से कहो तो अन्योन्याश्रय दोष आता है, अतः सादृश्य प्रत्यभिज्ञान अनुमान रूप है ऐसा कथन सिद्ध नहीं होता।
___ मीमांसक-गाय को देखने से उत्पन्न हुआ है संस्कार जिसको ऐसे पुरुष के रोझ को देखकर गाय का स्मरण होता है तब इसके समान वह है ऐसा प्राकार वाला ज्ञान उत्पन्न होता है वह तो उपमा प्रमाण रूप है अतः इसमें प्रत्यभिज्ञानपना सिद्ध नहीं होता। सादृश्य से विशिष्ट विशेष अथवा विशेष से विशिष्ट सादृश्य जो प्रमेय है वह उपमा ज्ञान ही है । कहा भी है उस देखी हुई वस्तु से जो स्मरण किया जाता है वह सादृश्य से विशेषित होता है अथवा उससे अन्वित जो सादृश्य है वह उपमा प्रमाण का प्रमेय है। यद्यपि प्रत्यक्ष द्वारा सादृश्य ज्ञान होता है एवं गाय की स्मृति भी होती है फिर भी उनका विशिष्टपना अन्य ज्ञान से ही जाना जाता है, जो अन्य ज्ञान है वही उपमा प्रमाण है, इस प्रकार उपमा में प्रमाणता की सिद्धि होती है। अभिप्राय यह है कि सादृश्यग्राही ज्ञान उपमा प्रमाण है न कि प्रत्यभिज्ञान ।
जैन:-यह कथन बिना सोचे किया है, एकत्व और सादृश्य की प्रतीति संकलन ज्ञान रूप होने से प्रत्यभिज्ञान का अतिक्रमण नहीं करती, "वही यह है" ऐसा आकार वाला ज्ञान जैसे उत्तर पर्याय का पूर्व पर्याय के साथ एकता की प्रतीति स्वरूप प्रत्यभिज्ञान है वैसे ही इसके समान वह हैं ऐसी सादृश्य की प्रतीति कराने वाला ज्ञान प्रत्यभिज्ञान कहलाता है क्योंकि संकलनता दोनों में समान है, कोई विशेषता नहीं है। जैसे -पूर्वोत्तर प्रत्ययों से वेद्य जो एकत्व है उसको जानने वाला होने से उस ज्ञान के
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