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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
इत्यप्यपेशनम्; सोयमित्येकत्वप्रतीतिमन्तरेण समारोपस्याप्यसम्भवात् । तदभ्युपगमे च 'अयं सः इत्यध्यक्षस्मरणव्यतिरेकेण नापरमेकत्वज्ञानम्' इत्यस्य विरोधः । न चाध्यक्षस्मरणे एव समारोप : ; तेनानयोर्व्यवच्छेदेऽनुमानस्यानुत्पत्तिरेव स्यात् तत्पूर्वकत्वात्तस्य । कथं चास्याः प्रतिक्षेपेऽभ्यासेतरावस्थायां प्रत्यक्षानुमानयोः प्रामाण्यप्रसिद्धि: ? प्रत्यभिज्ञाया श्रभावे हि 'यद्दृष्टं यच्चानुमितं तदेव प्राप्तम्' इत्येकत्वाध्यवसायाभावेनानयोर विसंवादासम्भवात् । तथा च " प्रमाणमविसंवादि ज्ञातम् " [ प्रमाणवा० २।१ ] इति प्रमाणलक्षणप्रणयनमयुक्तम् । अन्यद् दृष्टमनुमितं वा प्राप्तं चान्यदित्येकत्वाध्यवसायाभावेप्यविसंवादे प्रामाण्ये चानयोरभ्युपगम्यमाने मरीचिकाचक्र जलज्ञानस्यापि तत्प्रसङ्गः ।
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जाता है । उस प्रत्यक्ष में आये हुए समारोप का निषेध करने के लिये अनुमान की आवश्यकता होती है ।
जैन - यह कथन शोभन है " वह यह है" इस प्रकार की एकत्व की प्रतीति हुए बिना समारोप प्राना भी संभव नहीं है अतः एकत्व की प्रतीति को स्वीकार करना होगा और उसको स्वीकार करें तो आपका निम्नकथन विरोध को प्राप्त होगा कि "यह वह है" इस तरह के ज्ञान में प्रत्यक्ष और स्मरण को छोड़कर अन्य कोई एकत्व नाम का ज्ञान नहीं है । प्रत्यक्ष और स्मरण ही समारोप है ऐसा कहना भी शक्य नहीं, क्योंकि यदि इन दोनों का समारोप द्वारा व्यवच्छेद होगा तो अनुमान उत्पन्न नहीं होगा, क्योंकि अनुमान प्रत्यक्षादि पूर्वक होता है । दूसरी बात यह हैं कि प्रत्यभिज्ञान का निरसन करेंगे तो अनभ्यास दशा में प्रत्यक्ष और अनुमान की प्रमाणता किस प्रकार सिद्ध होगी ? क्योंकि प्रत्यभिज्ञान के अभाव में जो देखा था अथवा जिसका अनुमान हुआ था वही पदार्थ प्राप्त हुआ है ऐसा एकत्व का निश्चय नहीं होने से प्रत्यक्ष और अनुमान में विसंवाद सिद्ध होना असंभव है, अतः "अविसंवादी ज्ञान प्रमाण है" इस प्रकार प्राप बौद्ध के प्रमाण का लक्षण प्रयुक्त सिद्ध होता है । तथा बौद्ध के यहां प्रत्यक्ष द्वारा दृष्ट एवं अनुमान द्वारा अनुमित हुआ पदार्थ ग्रन्य है और प्राप्त होने वाला पदार्थ अन्य है, उस दृष्ट और प्राप्त पदार्थ में एकत्व अध्यवसाय के प्रभाव में भी प्रत्यक्ष और अनुमान का अविसंवादपना एवं प्रामाण्यपना स्वीकार किया जाय तो मरीचिका में होने वाले जल के ज्ञान को भी अविसंवादक एवं प्रामाण्य स्वीकार करना होगा ।
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