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प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्यविचारः
इति प्रतिपत्तिरस्ति; पूर्व प्रत्यक्षेणोत्तरस्य तत्प्रत्यक्षेण च पूर्वस्याग्रहणात् द्वयप्रतिपत्तिनिबन्धनत्वादुभयसादृश्यप्रतिपत्त ेः सम्बन्धप्रतिपत्तिवत् । ततः प्रत्यभिज्ञा प्रमाणमभ्युपगन्तव्या ।
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तदप्रामाण्यं हि गृहीतग्राहित्वात, स्मरणानन्तरभावित्वात्, शब्दाकारधारित्वाद्वा, बाध्यमानत्वाद्वा स्यात् ? न तावदाद्यविकल्पो युक्तः न हि तद्विषयभूतमेकं द्रव्यं स्मृतिप्रत्यक्षग्राह्यमित्युक्तम् । तद्गृहीतातीतवर्त्तमान विवर्त्त मानविवर्त्त तादात्म्येनावस्थितद्रव्यस्य कथञ्चित्पूर्वार्थत्वेपि तद्विषयप्रत्यभिज्ञानस्य नाप्रामाण्यम्, लैङ्गिकादेरप्यप्रामाण्यप्रसङ्गात् तस्यापि सर्वथैवापूर्वार्थत्वासिद्ध:, सम्बन्धग्राहिविज्ञानविषयसाध्यादिसामान्यात् कथञ्चिदभिन्नस्यानुमेयस्य देशकालविशिष्टस्य तद्विषयत्वात् कथञ्चिपूर्वार्थत्वसिद्ध ेः । तन्न गृहीतग्राहित्वात्तत्राप्रामाण्यम् ।
नापि स्मरणानन्तरभावित्वात् रूपस्मरणानन्तरं रससन्निपाते समुत्पन्नरसज्ञानस्याप्यप्रामाण्यप्रसङ्गात् । तत्र हि रूपस्मृतेः पूर्वकालभावित्वात् समनन्तरकारणत्वं "बोधाद्बोधरूपता"
उसके समान अग्नि है" इत्यादि प्रतीति नहीं होती, क्योंकि पूर्व पर्याय को ग्रहण करने वाले प्रत्यक्ष द्वारा उत्तर पर्याय का ग्रहण नहीं होता और उत्तरकालीन पर्याय को ग्रहण करने वाले प्रत्यक्ष द्वारा पूर्व पर्याय का ग्रहण नहीं होता । उभय पर्यायों में होने वाले सादृश्य का ज्ञान उभय को जानने से ही होगा जैसे संबंध का ज्ञान उभय पदार्थों के जानने से होता है। इसलिये प्रत्यभिज्ञान को प्रमाणभूत स्वीकार करना चाहिए ।
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बौद्ध प्रत्यभिज्ञान को प्रमाणभूत किस कारण से मानते हैं ? गृहीत ग्राही होने से अथवा स्मरण के ग्रनन्तर होने से, शब्दाकार को धारण करने से अथवा बाध्यमान होने से ? प्रथम विकल्प ठीक नहीं क्योंकि प्रत्यभिज्ञान का विषयभूत जो एक द्रव्य है वह स्मृति और प्रत्यक्ष द्वारा ग्राह्य नहीं होता ऐसा सिद्ध कर प्राये हैं । स्मरण र प्रत्यक्ष द्वारा ग्रहीत प्रतीत और वर्तमान पर्यायों में तादात्म्य संबंध से अवस्थित हुआ द्रव्य यद्यपि कथंचित् पूर्वार्थ है तो भी उसको विषय करने वाले प्रत्यभिज्ञान को अप्रमाण नहीं कह सकते, अन्यथा अनुमानादि को भी प्रमाण मानना होगा, क्योंकि इसका विषय भी सर्वथा अपूर्वार्थ नहीं है । आगे इसी को बताते हैं, संबंध को ग्रहण करने वाले तर्क ज्ञान का विषय जो साध्यादि सामान्य है उससे कथंचित् प्रभिन्न अनुमान का विषय होता है, जो देश और काल से विशिष्ट है उसको विषय करने से अनुमान में भी कथंचित् पूर्वार्थपना सिद्ध ही है, अतः गृहीत ग्राही होने से प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है ऐसा कहना प्रसिद्ध है । स्मरण के अनन्तर होने से प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है, ऐसा दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं है इस तरह माने तो रूप
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