Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे "न हि स्मरणतो यत्प्राक् तत् प्रत्यक्षमितीदृशम् । वचनं राजकीयं वा लौकिकं वापि विद्यते ।।१।। न चापि स्मरणात्पश्चादिन्द्रियस्य प्रवर्तनम् । वार्यते केनचिन्नापि तत्तदानी प्रदुष्यति ॥२॥ तेनेन्द्रियार्थसम्बन्धात्प्रागूध्वं चापि यत्स्मृतेः। विज्ञानं जायते सर्वं प्रत्यक्षमिति गम्यताम् ॥३॥"
[ मी० श्लो० सू० ४ श्लो० २३४-२३७ ] अनेकदेशकालावस्थासमन्वितं सामान्यं द्रव्यादिकं च वस्त्वस्याः प्रमेयमित्यपूर्वप्रमेयसद्भावः। तदुक्तम्
"गृहीतमपि गोत्वादि स्मृतिस्पृष्टं च यद्यपि । तथापि व्यतिरेकेण पूर्वबोधात्प्रतीयते ।।१।।
पहले हो वही प्रत्यक्ष प्रमाण हो ऐसा लौकिक या राजकीय नियम नहीं है स्मरण के पश्चात् इन्द्रियों के प्रवर्तन को किसी के द्वारा रोक दिया जाता हो सो भी बात नहीं है और न उस समय वे दूषित ही होती हैं। इसलिये निश्चय होता है कि जो ज्ञान इन्द्रिय और पदार्थ के संबंध से होता हैं वह सब प्रत्यक्ष प्रमाण है फिर चाहे वह स्मृति के प्राग्भावी हो चाहे पश्चाद्भावी हो। इस प्रत्यभिज्ञान रूप प्रत्यक्ष का विषय अनेक देश काल अवस्थाओं से युक्त सामान्य और द्रव्यादिक है, अतः इसमें अपूर्व विषयपना भी है। कहा भी हैं यद्यपि यह प्रत्यभिज्ञान स्मृति के पीछे होता है तथा इसका गोत्वादि विषय भी गृहीत है तथापि यह पूर्व ज्ञान से भिन्न प्रतीत होता है क्योंकि विभिन्न देश काल आदि के निमित्त से उसमें भेद होता है, पहले जो अंश अवगत था वह अब प्रतीत नहीं हो रहा और इस समय का अस्तित्व पूर्व ज्ञान द्वारा अवगत नहीं हुआ है।
जैन - मीमांसक का यह कथन अयुक्त है, प्रत्यभिज्ञान में इन्द्रियों के साथ अन्वय व्यतिरेक के अनुविधान की प्रसिद्धि है, अन्यथा पहली बार व्यक्ति के देखते समय भी प्रत्यभिज्ञान की उत्पत्ति होती।
शंका-प्रथम बार के दर्शन से संस्कार होता है उस संस्कार के प्रबोध से उत्पन्न हुई स्मृति जिसमें सहायक है ऐसी इन्द्रिय पुन: उस वस्तु के देखने पर प्रत्यभिज्ञान को उत्पन्न करती है ।
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