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प्रमेय कमलमार्त्तण्डे
'अहमनुभूते समुत्पन्ना' इति अनुभवानुसारित्वात्तस्याः । न चासौ प्रत्यक्षगम्येत्युक्तम्; इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम्; स्मृतिशब्दवाच्यार्थस्य प्रागेव प्ररूपितत्वात् । ' तदित्याकारानुभूतार्थविषया हि प्रतीतिः स्मृति:' इत्युच्यते ।
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ननु चोक्तमनुभूते स्मृतिरित्येतन्न स्मृतिप्रत्यक्षाभ्यां प्रतीयते; तदप्यपेशलम्; मतिज्ञानापेक्षेणात्मना अनुभूयमानाऽनुभूतार्थविषयतायाः स्मृतिप्रत्यक्षाकारयोश्वानुभवसम्भवात् चित्राकारप्रतीतिवत् चित्रज्ञानेन । यथा चाशक्यविवेचनत्वाद् युगपच्चित्राकारतैकस्याविरुद्धा, तथा क्रमेणापि अवग्रहेहावायधा रणास्मृत्यादिचित्रस्वभावता । न च प्रत्यक्षेणानुभूयमानतानुभवे तदैवार्थेऽनुभूतताया प्रध्यनुभवोऽनुषज्यते; स्मृतिविशेषणापेक्षत्वात्तत्र तत्प्रतीतेः, नीलाद्याकार विशेषरणापेक्षया ज्ञाने चित्रप्रतिपत्तिवत् ।
क्योंकि स्मृति अनुभव के अनुसार हुआ करती है किन्तु अनुभूतता प्रत्यक्ष गम्य नहीं है । ( इस प्रकार स्मृति ज्ञान प्रमाणभूत सिद्ध नहीं होता है )
जैन - यह सारा कथन बिना सोचे किया है, स्मृति शब्द का वाच्यार्थ पहले ही बता चुके हैं कि "वह" इस प्रकार का प्रतिभास जिसमें हो वह अनुभूत विषय वाली प्रतीति ही स्मृति कहलाती है ।
शंका- "अनुभूत अर्थ में स्मृति होती है" ऐसा स्मृति और प्रत्यक्ष के द्वारा प्रतीत नहीं होता है ।
समाधान- यह बात ठीक नहीं है । जिसमें मतिज्ञान की अपेक्षा है ऐसे आत्मा के द्वारा अनुभूय विषय और अनुभूतार्थ विषय का प्रत्यक्ष तथा स्मृति के आकार से अनुभव होना संभव है । जैसे -- चित्र ज्ञान के द्वारा चित्राकारों का प्रतिभास होना संभव है । जिस प्रकार ग्राप बौद्ध के यहां अशक्य विवेचन होने से एक ज्ञान की एक साथ चित्राकारता होना अविरुद्ध हैं उसी प्रकार क्रम से भी अवग्रहज्ञान, ईहाज्ञान, अवायज्ञान, धारणाज्ञान, स्मृतिज्ञान इत्यादि विचित्र ज्ञानों का एक आत्मा में होना अविरुद्ध है । कोई कहे कि प्रत्यक्ष के द्वारा अनुभूय मानता अनुभव में आने के साथ उसी वक्त पदार्थ में अनुभूतता का भी अनुभव हो जाना चाहिए, सो यह कथन ठीक नहीं, क्योंकि उस अनुभूतता में स्मृति विशेषरण की अपेक्षा होती है, उससे ही अनुभूतता की प्रतीति होती है, जैसे नीलादि श्राकाररूप विशेषण की अपेक्षा से ज्ञान में चित्र की प्रतिपत्ति होती है ।
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