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प्रमेयकमलमार्तण्डे इत्यादेरप्यागमस्य स्त्रीमुक्तिप्रतिपादकत्वाभावः । स हि पुवेदोदयवत् शेषवेदोदयेनापि पुसामेवापवर्गावेदक उभयत्रापि 'पुरुषाः' इत्यभिसम्बन्धात् । उदयश्च भावस्यैव न द्रव्यस्य ।
स्त्रीत्वान्यथानुपपत्तश्चासां न मुक्तिः । प्रागमे हि जघन्येन सप्ताष्टभिर्भवैः उत्कर्षेण द्विर्जीवस्य रत्नत्रयाराधकस्य मुक्तिरुक्ता । यदा चास्य सम्यग्दर्शनाराधकत्वम् तत्प्रभृति सर्वासु स्त्रीषूत्पत्तिरेव न सम्भवतीति कथं स्त्रीमुक्तिसिद्धिः ।
ननु चानादिमिथ्यादृष्टिरपि जीवः पूर्वभवनिर्जीर्णाशुभकर्मा प्रथमतरमेव रत्नत्रयमाराध्य भरतपुत्रादिवन्मुक्तिमासादयत्यतः स्त्रीत्वेनोत्पन्नस्यापि मुक्तिरविरुद्ध ति; तदप्ययुक्तम्; पूर्व निर्जीर्णा
भावार्थ:- स्त्रीवेद आदि मोहनीय कर्म के होने पर जीव के भाव स्त्रीरूप आदि होते हैं मोहनीय का उदय भावों की सृष्टि करता है स्त्री के शरीराकार या पुरुष के शरीराकार बनना तो नामकर्म के आधीन है अतः द्रव्यवेद नामकर्म का कार्य है, किंतु जो बाह्य में पुरुष रूप द्रव्यवेद वाले हैं, और अंतरंग में स्त्रीवेद के उदय का अथवा पुरुषवेद के उदय का अनुभव कर रहे हैं ऐसे पुरुष ही क्षपक श्रेणी पर चढ़कर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। जो बाह्य में स्त्रीरूप शरीर वाले हैं या नपुसकरूप शरीर वाले हैं अर्थात् द्रव्यस्त्री और द्रव्य नपुंसक हैं वे मनुष्य मोक्ष नहीं जा सकते । जहां भी स्त्रीवेद के उदय वाले मोक्ष जाते हैं ऐसा कथन है वहां स्पष्टतया मोहनीय का उदय संबंधित है, क्योंकि भाव तो मोह कर्म से होते हैं। स्त्रियों में स्त्रीत्व अवश्य रहता है अतः उनके मोक्ष नहीं हो सकता है । प्रागम में रत्नत्रय की आराधना करने वाले जीव मधन्य से सात आठ भवों में और उत्कृष्टता से बो तीन भवों में मोक्ष जाते हैं, ऐसा कहा है, जब से यह जीव मात्र सम्यग्दर्शन की आराधना करता है तब से किसी भी स्त्री पर्याय में (देवी, मनुष्यनी, तिर्यंचनी में) उत्पन्न ही नहीं होता है, जब सम्यग्दृष्टि के स्त्रीपर्याय होना संभव नहीं है तो मुक्ति कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती।
श्वेतांबर-जिसने पूर्व भव में अशुभ कर्मों को निर्जीर्ण कर दिया है ऐसा कोई अनादि मिथ्यादृष्टि जीव है वह पहली बार ही रत्नत्रय की भावना कर भरत चक्रवर्ती के पुत्रों के समान मुक्ति को प्राप्त करता है ऐसे जीव के स्त्रीपने से उत्पन्न होने पर भी मुक्ति होना अविरुद्ध है ?
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