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मोक्ष स्वरूप विचार का सारांश
पूर्व पक्ष-जैन लोगोंने अनन्त अनादि गुणोंकी प्राप्ति होना मोक्ष माना है सो युक्त नहीं है, मोक्षमें तो बुद्धि आदि नौ विशेष गुण नष्ट हो जाते हैं, अनुमानसे यह बात सिद्ध होती है। बुद्धि प्रादिक आत्माके विशेष नौ गुणोंकी सन्तान अत्यन्त नष्ट हो जाती है क्योंकि वह सन्तान रूप है जैसे दीपककी सन्तान । यह सन्तानत्व हेतु असिद्धादि पांचों दोषोंसे रहित है। उस बुद्धि आदिके अभाव होनेरूप मोक्षका कारण तत्त्वज्ञान है। सर्व प्रथम तत्त्वज्ञान होता है उसके होते ही मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाता है, फिर क्रमसे रागादि विकार पार कर जाते हैं रागादिके अभावमें मन, वचन, काय की चेष्टायें शांत होती हैं, पुनश्च पुण्य पाप रूप धर्म अधर्म भी उत्पन्न नहीं होते । इस प्रकार नये कर्मोके आगमनके कारण हट जाने पर संचित हुए जो धर्म अधर्म हैं उनका सुख दुःखादि रूप फल भोग करके नाश होता है। कोई पूछे कि यदि कर्म बिना भोगे छूटते नहीं तो नित्य नैमित्तिक क्रिया किसलिये की जाती है ? तो उसका समाधान यह है कि मोक्षमार्गमें पायी हई बाधाोंको रोकने के लिये क्रियानुष्ठान किया जाता है। इस तरह हमारा मोक्षका स्वरूप निर्दोष है।
अब क्रमसे अन्यके मोक्षका विचार करते हैं-वेदान्ती आनन्दरूपताको मोक्ष मानते हैं, सो उन्हें पूछते हैं कि प्रानन्द सुख रूप है, सो वह सुख नित्य है या अनित्य ? नित्य है तो उसका संवेदन सदा होता रहनेसे संसारावस्थामें भी मोक्ष का आनन्द प्राप्त होनेका प्रसंग आता है। यदि वह आनन्द अनित्य है तो मोक्षमें उसकी किस कारणसे उत्पत्ति होगी ? योगज धर्मके अनुग्रहसे युक्त हुआ मन उस सुख को उत्पन्न करता है ऐसा आपने' माना है किन्तु ऐसा मन मोक्षमें नहीं है । तथा यदि मोक्षमें सुख है तो उसके लिये शरीरादिकी कल्पना करनी पड़ेगी। बौद्ध विशुद्ध ज्ञान उत्पन्न होनेको मोक्ष मानते हैं, सो सराग ज्ञानसे विशुद्ध वीतराग ज्ञान उत्पन्न होना असम्भव है। यदि कहा जाय कि अभ्यास विशेषसे रागादि नष्ट होकर शुद्ध ज्ञान हो जायगा सो भी युक्त नहीं, आपके यहां विनाश निहें तुक माना है, तथा क्षणिक पक्ष में अभ्यास होना अशक्य है ।
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