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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रसज्यते। तथा च लिङ्गग्रहणमनर्थकम् । सचेलसंयमश्च मुक्तिहेतुरिति कुतोऽवगतम् ? स्वागमाच्चेत्; न; अस्यास्मान् प्रत्यागमाभासत्वाद् भवतो यज्ञानुष्ठानागमवत् । स्त्रियो न मोक्षहेतुसंयमवत्यः साधूनामवन्द्यत्वाद् गृहस्थवत् । न चात्रासिद्धो हेतुः;
"वरिससयदिक्खियाए अज्जाए अज्ज दिक्खिनो साहु । अभिगमणवंदणणमंसण विणएण सो पुज्जो ॥” [ ]
इत्यभिधानात् । बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहवत्त्वाच्च न तास्तद्वत्यस्तद्वत् । न चायमसिद्धो हेतुः; प्रत्यक्षेणावगतो हि वस्त्रग्रहणादिबाह्यपरिग्रहोऽभ्यन्तरं स्वशरीरानुरागादिपरिग्रहमनुमापयति । न च शरीरोष्मणा वातकायिका दिजन्तूपघातनिवारणार्थं स्वशरीरानुरागाद्यभावेप्यसावुप दीयते इत्यभिधेयम्; पुसामाचेलक्यव्रतस्य हिंसात्वानुषङ्गात् । तथा चार्हदादयो मुक्तिभाजस्तदुपदेष्टारो वा न स्युः; किन्तु सवस्त्रा एव गृहस्था मुक्तिभाजो भवेयुः। न चाचेलक्यं नेष्यते ।
बेकार होगा। आपने सचेल संयम मोक्षका कारण है ऐसा किस प्रमाण से जाना है ? अपने आगमसे जाना है कहो तो ठीक नहीं, हम दिगम्बर के लिये वह पागमाभास है, जैसे आपको यज्ञानुष्ठानादि प्रतिपादक मीमांसकका आगम पागमाभास रूप है । स्त्रियां मुक्त नहीं होती इस विषयमें और भी अनुमान हैं, स्त्रियां मोक्ष के कारणभूत संयमवाली नहीं हो सकतो क्योंकि वे साधुनों के लिये वन्दनीय नहीं हुमा करती हैं, जैसे गृहस्थ वन्दनीय नहीं होते हैं। कहा भी है-सैंकड़ों वर्षोंको दीक्षित प्रायिकायें अाज के दीक्षित साधु को नमस्कार करतो हैं साधु उनके द्वारा वन्दनीय, आदरणीय होता है, विनय करने योग्य होता है, सन्मुख जाने योग्य होता है ।।१।।
स्त्रियां बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह युक्त भी होती हैं अतः मोक्ष के योग्य संयम को नहीं धार सकतीं। यह बाह्याभ्यन्तर परिग्रहत्व हेतु भी प्रसिद्ध नहीं है प्रत्यक्ष से दिखता है कि वस्त्र ग्रहणादि बाह्य परिग्रह तथा स्वशरीरका अनुरागादि रूप अभ्यंतर परिग्रह स्त्रियोंके होता है। श्वेताम्बर कहे कि शरीरकी गरमी से वायुकायिक आदि जीवोंको बाधा न होवे इसलिये शरीरका राग नहीं रहते हुए भी स्त्रियां वस्त्र को धारण करती हैं ऐसा कथन गलत है, इस तरह तो पुरुषोंके आचेलक्य (वस्त्र त्याग) नामा व्रत हिंसाका कारण बन जायगा ? फिर तो अहंत, गणधर आदिक मुक्तिके पात्र नहीं रहेंगे, न आचेलक्य का उपदेश देने वाले मुक्तिके पात्र होंगे, अपितु वस्त्रधारी
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