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प्रमेयकमलमार्तण्डे न च गुणपुरुषान्तरविवेकदर्शनं निःश्रेयससाधनं घटते; प्रकर्षपर्यन्तावस्थायामप्यात्मनि शरीरेण सहावस्थानान्मिथ्याज्ञानवत् ।
__अथ फलोपभोगकृतोपात्तकर्मक्षयापेक्षं तत्त्वज्ञानं परनिःश्रेयसस्य साधनम्, तदनपेक्षं चाऽपरनिःश्रेयसस्येत्युच्यते; तदप्युक्तिमात्रम्; फलोपभोगस्यौपक्रमिकानौपक्रमिक विकल्पानतिक्रमात् । तस्यौपक्रमिकत्वे कुतस्तदुपक्रमोऽन्यत्र तपोतिशयात्, इति तत्त्वज्ञानं तपोतिशयसहायमन्तभूततत्त्वार्थश्रद्धानं परनिःश्रेयसकारणमित्यनिच्छतोप्यायातम् । तस्यानोपन मिकत्वे तु सदा सद्भावानुषङ्गः। प्रलाप मात्र है। इस प्रकार अनेकान्तरूप वस्तु एवं अनेकांत ग्राहक प्रमाण की सिद्धि निर्बाधरूपसे होती है।
आत्मा के एकत्व ज्ञानसे मोक्ष होता है इत्यादि कथन तो सिद्धसाध्यता रूप होनेसे उसमें समाधान की आवश्यकता नहीं है।
प्रधान और पुरुषका भेद दर्शन [भेद ज्ञान] मोक्षका हेतु है ऐसा कहना भी घटित नहीं होता, आत्मामें उस भेद दर्शनकी चरम प्रकर्ष अवस्था होने पर भी शरीर के साथ वह अवस्थित रहता है जैसे कि मिथ्याज्ञान शरीरके साथ स्थित रहता है, अभिप्राय यह है कि प्रधान और पुरुष के भिन्नताका ज्ञान होने मात्रसे मोक्ष होता तो जिस किसीको वह ज्ञान होने के साथ मोक्ष हो जाना था किन्तु ऐसा नहीं होता भेद ज्ञान होने पर भी कितने ही समय तक योगीजन निःश्रेयसको प्राप्त नहीं करते अतः केवल भेद ज्ञान मोक्षका कारण है ऐसा सिद्ध नहीं होता।
सांख्य-जो तत्त्वज्ञान प्राप्त कर्मोंके फलोंका उपयोग करके होने वाले क्षयकी अपेक्षा रखता है वह पर निःश्रेयस [जीवन्मुक्ति का कारण है और जो उक्त क्षयकी अपेक्षा नहीं रखता वह तत्त्वज्ञान अपर निःश्रेयस [ परममुक्ति ] का कारण है ऐसा हम मानते हैं।
जैन-यह कथन अयुक्त है, कर्मफलोंका उपभोग दो विकल्परूप है औपक्रमिक फलोपभोग और अनौपक्रमिक फलोपभोग, इनमेंसे उक्त फलोपभोग औपक्रमिक रूप माने तो वह उपक्रम भी तपोतिशयको छोड़कर अन्य कौन-सा होगा ? अर्थात् तपोतिशयरूप उपक्रम ही होगा। अतः तपोतिशयकी सहायतासे जो युक्त है जिसके अंतर्भूत तत्त्वार्थ श्रद्धान है ऐसा तत्त्वज्ञान परनिःश्रेयस का कारण है ऐसा नहीं चाहते हुए भी सांख्यादि
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