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प्रमेयकमलमाण्डेि
भेदकरणे तस्याकिञ्चित्करत्वप्रसङ्गात् । नापि भेदव्यवहारः; स्वहेतुभ्योऽसाधारणतयोत्पन्नानां सकलभावानां प्रत्यक्षेप्रतिभासनादेव भेदव्यवहारस्यापि प्रसिद्ध: । प्रतिक्षिप्तश्चेतरेतराभावः प्रागेवेति कृतं प्रयासेन ।
कार्यान्तरेषु चाऽकर्तृत्वं न प्रतिषिध्यते; इत्याद्यप्यसारम्; एकान्तपक्षे कार्यकारित्वस्यैवासम्भवात् ।
यच्च मुक्तावप्यनेकान्तो न व्यावर्त्तते; तदिष्यते एव । अनेकान्तो हि द्वधा-क्रमानेकान्तः, अक्रमानेकान्तश्च । तत्र क्रमानेकान्तापेक्षया य एव प्रागमुक्तः स एवेदानीं मुक्तः संसारी चेत्यविरोधः । अनेकान्तेऽनेकान्ताभ्युपगमोप्यदूषणमेव; प्रमाणपरिच्छेद्यस्यानेकधर्माध्यासितवस्तुस्वरूपानेकान्तस्य नयपरिच्छेद्य कान्ताविनाभावित्वात् ।
इस इतरेतराभावका प्रथम भागके "अभावस्य प्रत्यक्षादावंतर्भावः” इस प्रकरणमें भलीभांति निरसन भी हो चुका है अतः यहां अधिक नहीं कहते ।
स्वकार्यमें कर्तृत्व और कार्यातरमें अकर्तृत्वका निषेध नहीं करते इत्यादि रूपसे वैशेषिक का पूर्वोक्त कथन भी प्रसार है, एकांत पक्षमें कार्यकारी पना होना ही सर्वथा असंभव है।
पहले वैशेषिक ने कहा था कि जैन मुक्तिमें भी अनेकांत की व्यावृत्ति नहीं मानते सो बात ठीक ही हैं, अनेकांत दो प्रकारका है क्रम अनेकांत और अक्रमअनेकांत, इनमेंसे क्रम अनेकांतकी अपेक्षा देखा जाय तो जो ही पहले अमुक्त था वही इससमय मुक्त हुआ है, और संसारी भी है, इसप्रकार द्रव्यदृष्टिसे संसारी और मुक्तका एकत्र अविरोध है । अनेकांतमें भी अनेकांत मानना होगा इत्यादि कहना भी हमारे लिये दूषणरूप नहीं है, प्रमाणद्वारा परिच्छेद्य एवं अनेकधर्मोसे अध्यासित ऐसा जो वस्तु स्वरूप अनेकांत है उसका नयद्वारा परिच्छेद्य रूप एकांतके साथ अविनाभावपना होने के कारण अनेकांतमें अनेकांत सुघटित ही होता है ।
विशेषार्थ-"अनेके अन्ताः धर्माः वर्तन्ते यस्मिन् पदार्थे सोयं अनेकान्तः" इसप्रकार अनेकान्त शब्दका व्युत्पत्ति सिद्धि अर्थ है अर्थात् अनेक धर्म गुण या स्वभाव जिसमें पाये जाते हैं उस वस्तुको अनेकांत नामसे कहा जाता है, वस्तुमें यह जो अने
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