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मोक्षस्वरूपविचारः
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नादिपदार्थस्वरूपव्यतिरिक्त तत्स्वरूपं निरूप्यताम् । अभिभवश्च यदि विनाशः; कथं तत्र ज्ञानस्य सत्त्वं विनाशस्य वा निर्हेतुकत्वम् ? अथ तिरोभावः; न; विज्ञानसत्त व संवेदनमित्यभ्युपगमे तस्यानुपपत्ते: । अतः सुषुप्तावस्थायां विज्ञानासत्त्वेनान्त्यज्ञानसद्भावादेकसन्तानत्वं व्यभिचारीति ।
यच्चोच्यते-विशिष्टभावनाभ्यासवशाद्रागादिविनाशः; तदप्यसङ्गतम्; निर्हेतुकत्वाद्विनाशस्य अभ्यासानुपपत्तश्च । अभ्यासो ह्यवस्थिते ध्यातर्यतिशयाधायकत्वेन स्यान क्षरिएकज्ञानमात्रे । न च सन्तानापेक्षयाऽतिशयो युक्तः; तस्यैवासत्त्वात्, अविशिष्टाद्विशिष्टोत्पत्ते रयोगाच्च । अविशिष्टाद्धि पूर्व
इनका क्या स्वरूप है यह कहना होगा । तथा अभिभवका अर्थ यदि विनाश होना करते हैं तो उस सुप्तावस्थामें ज्ञानका अस्तित्व किसप्रकार सिद्ध करेंगे, एवं विनाश निर्हेतुक होता है यह भी किसप्रकार सिद्ध होगा? तिरोभाव होनेको ज्ञानका अभिभव कहते हैं ऐसा कहना ठीक नहीं क्योंकि आपने ज्ञानकी सत्ताको ही संवेदन माना है अतः उसका तिरोभाव होना अशक्य है । इसप्रकार सुप्त अवस्थामें ज्ञान असत्व ही सिद्ध होता है, एवं अंतिम ज्ञानका सद्भाव सिद्ध होता है अतः एक संतानत्व नामा पूर्वोक्त हेतु व्यभिचारी ही है।
भावार्थ-बौद्धने ज्ञानका संवेदन और ज्ञानकी सत्ता इनमें अंतर नहीं माना है ज्ञान चाहे प्रगट हो या अप्रगट दोनों अवस्थानोंमें समान है, सो ऐसे ज्ञानका तिरोभाव और आविर्भावरूप भेद नहीं हो सकता, अतः सुप्त दशामें ज्ञान अभिभूत होनेके कारण सुप्तावस्था और जाग्रदवस्था इनमें भेद है ऐसा बौद्धका कहना सिद्ध नहीं होता, इसीलिये हम वैशेषिकके मान्यतानुसार सुप्तावस्थामें ज्ञानका अभाव होना सिद्ध होता है । तथा एक संतानपना होनेसे पूर्व ज्ञान उत्तर ज्ञानको उत्पन्न करता है ऐसा कहना भी प्रसिद्ध है क्योंकि निर्वाणके संमुख योगीका ज्ञान एक संतानरूप होते हुए भी अग्रिम उत्तर ज्ञानको उत्पन्न नहीं करता है, अतः बौद्ध द्वारा प्रयुक्त एक संतानत्व हेतु व्यभिचार दोष युक्त है।
बौद्धोंके यहां मान्यता है कि विशिष्टभावना और अभ्यासके बलसे रागादि का नाश हो जाता है, सो यह भी असत् है, क्योंकि आप नाशको निर्हेतुक मानते हैं। अभ्यास होना तो क्षणिकमतमें सर्वथा असंभव है, क्योंकि ध्याता पुरुष अवस्थित होने पर ही उसमें अभ्यास द्वारा अतिशयत्व आ सकता है, क्षणिक ज्ञानमात्र में अतिशय किसप्रकार संभव है ?
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