Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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मोक्षस्वरूप विचारः
२१७
कारणं नान्यस्येत्यभ्युपगमात् । तथा मुक्तावप्यनेकान्तो न व्यावर्त्तत इति स एव मुक्तः संसारी च' इति प्रसक्तम् । तथाऽनेकान्तेप्यनेकान्तप्रसङ्गात् सदसन्नित्यानित्यादिरूपव्यतिरिक्त रूपान्तरमपि प्रसज्येतेति ।
अन्ये त्वात्मैकत्वज्ञानात्परमात्मनि लयः सम्पद्यते इति ब्रुवते । तथाहि श्रात्मैव परमार्थसंस्ततोऽन्यत्र भेदे प्रमाणाभावात् । प्रत्यक्षं हि पदार्थानां सद्भावस्यैव ग्राहकं न भेदस्येत्यविद्यासमारोपितो भेदः तेप्यतत्त्वज्ञाः; श्रात्मैकत्वज्ञानस्य मिथ्यारूपतया निःश्रेयसाऽसाधकत्वात् । तन्मिथ्यात्वं चार्थानां प्रमाणतो वास्तवभेदप्रसिद्धे ।।
एवं शब्दाद्वैतज्ञानमपि मिथ्यारूपतया निःश्रेयसाप्रसाधकं द्रष्टव्यम् । निरस्तं चात्माद्वैतं शब्दाद्वैतं च प्राक्प्रबन्धेनेत्यल मतिप्रसङ्ग ेन ।
असत्व मानते हैं अतः उसमें विरोधादि दोष आते हैं, हम वैशेषिकने तो इतरेतराभाव से स्वप्रदेशादिमें सत्व और पर प्रदेशादिमें असत्व स्वीकार किया है । वस्तुके स्वकार्यों में कर्तृत्व और कार्यांतरोंमें अकर्तृत्व रूप धर्म भी निषिद्ध नहीं है, क्योंकि जिसकी उत्पत्ति में अन्वय और व्यतिरेकपनेसे जो प्रवृत्त होता है वह उसका कारण माना जाता है अन्यका नहीं, ऐसा माना गया है ।
जैन मुक्तिमें भी अनेकांतकी व्यावृत्ति नहीं मानते अतः वही जीव मुक्त और संसारी होने का प्रसंग आता है । सब अनेकांतरूप है तो अनेकांतमें भी अनेकांत स्वीकार करने का प्रसंग आता है, एवं सत् असत् नित्य अनित्यादिसे भिन्न किसी अन्य रूप होने का प्रसंग भी आता है ।
ब्रह्माद्वैतवादी आत्माके एकत्वका ज्ञान होनेसे परमात्मामें लय होना मोक्ष है। ऐसा कहते हैं, एक आत्मा ही परमार्थभूत वस्तु है इससे भिन्न अन्य वस्तुको सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है, प्रत्यक्ष प्रमाण पदार्थोंके सद्भावमात्रका ग्राहक हैं न कि भेद का अतः निश्चित होता है कि अविद्याके द्वारा ही भेदभावका आरोप होता है । सो यह मोक्षका स्वरूप भी प्रयुक्त है, एक आत्मा नामा पदार्थ ही है अन्य नहीं ऐसा आत्म एकत्वका ज्ञान मिथ्या होनेके कारण मोक्षका असाधक है, घट पटादि पदार्थोंके भेद वास्तविक हैं विद्याकल्पित नहीं हैं ऐसा प्रमाणसे सिद्ध होता है अतः आत्म एकत्वका ज्ञान मिथ्या है ।
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