Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे सन्तानक्याबद्धस्यैव मुक्तिरपीति चेत्; ननु यदि सन्तानार्थः परमार्थसन्; तदात्मैव सन्तानशब्देनोक्तः स्यात् । अथ संवृतिसन्; तदैकस्य परमार्थसतोऽसत्त्वात् 'अन्यो बद्धोऽन्यश्च मुच्यते' इति मुक्त्यर्थं प्रवृत्तिर्न स्यात् । अथात्यन्तनानात्वेपि दृढतरैकत्वाध्यवसायाद् ‘बद्धमात्मानं मोचयिष्यामि' इत्यभिसन्धानवतः प्रवृत्ते यं दोषः; न तर्हि नैरात्म्यदर्शनम्, इति कुतस्तन्निबन्धना मुक्तिः ? अथास्ति तद्दर्शनं शास्त्रसंस्कारजम्; न ताकत्वाध्यवसायोऽस्खलद्रूप इति कुतो बद्धस्य मुक्त्यर्थं प्रवृत्तिः स्यात् ? तथा च
"मिथ्याध्यारोपहानार्थ यत्नोऽसत्यपि मोक्तरि" [प्रमाणवा० २।१९२] इति प्लवते । तस्मात्सान्वया चित्तसन्ततिरभ्युपगन्तव्या, सकल विज्ञानक्षणत्वेपि जीवाभावे बन्धमोक्षयोस्तदर्थं वा
संतान एक रूप होनेके कारण बद्ध की ही मुक्ति होती है ऐसा कहना भी शक्य नहीं, आप संतानको यदि परमार्थभूत मानते हैं तो आत्माका ही संतान शब्द द्वारा उल्लेख हुा । और यदि काल्पनिक मानते हैं तो एक वास्तविक सत्ताभूत पदार्थ के नहीं होनेसे वही दोष आता है कि अन्य बद्ध था और अन्य कोई मुक्त हुअा, इस तरह तो मुक्तिके लिये प्रयत्न शील हो ही नहीं सकता, क्योंकि जिसने प्रयत्न किया वह मुक्त न होकर अन्य कोई होता है।
बौद्ध-संतानमें अत्यन्त नानापना होनेपर भी दृढतर एकपनेका अध्यवसाय [अभ्यास] होनेके कारण बद्ध हुए आत्माको विमुक्त करूगा इसप्रकारके अभिप्राय युक्त पुरुष मोक्षके लिये प्रयत्न करते ही हैं । अतः कोई दोष नहीं ?
जैन-तो फिर आपका नैरात्म्य दर्शन समाप्त होता है, अर्थात् प्रदीप निर्वाणवत् आत्मनिर्वाणम्-दीपकके समान प्रात्माका निरन्वय नाश होता है और वही मोक्ष है ऐसे शून्यस्वरूप नैरात्म्य भावनासे मोक्ष होता है ऐसी मान्यता नष्ट होती है फिर उस भावनाके निमित्तसे होनेवाला मोक्ष भी किसप्रकार सिद्ध होगा ? नैरात्म्य दर्शनका अस्तित्व है और वह शास्त्र संस्कार से होता है ऐसा कहो तो उक्त एकत्वका अध्यवसाय सत्यार्थ नहीं रहता [क्योंकि नैरात्म्य भावना प्रात्म-अभावरूप है और आत्मएकत्वकी भावना आत्म सद्भाव रूप है अत: एकको सत्यभूत स्वीकार करनेपर दूसरी स्वतः असत्य ठहरती है] फिर बद्ध पुरुषके आत्म एकत्वका अध्यवसाय हो जानेसे मुक्तिके लिये प्रवृत्ति होती है ऐसा कथन किस तरह सिद्ध होगा ? इसतरह मुक्तिके लिये प्रवृत्ति होना सिद्ध नहीं होनेपर मुक्त होनेवाले आत्माके नहीं होनेपर भी मिथ्या
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