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प्रमेय कमलमार्त्तण्डे
कारणम्, घटाद्यावरणापायोपेत प्रदीपक्षरणवत् स्वपरप्रकाश कापर प्रदीपक्षगोत्पत्तौ तदुत्पादन [ स्व ] भावस्यान्यापेक्षायोगात् । यद्धि यदुत्पादनस्वभावं न तत्तदुत्पादनेऽन्यापेक्षम् यथान्त्या कारणसामग्री स्वकार्योत्पादने, तदुत्पादनस्वभावश्वातीन्द्रियज्ञानसुखाद्य, त्पत्ती प्रतिबन्धकापायोपेत आत्मेति । संसारावस्थायामप्युपलभ्यते-वासीचन्दनकल्पानां सर्वत्र समवृत्तीनां विशिष्टघ्यानादिव्यवस्थितानां सेन्द्रियशरीरव्यापाराऽजन्यः परमाल्हादरूपोऽनुभवः । अस्यैव
भावनावशात्तरोत्तरावस्थामासादयतः
परमकाष्ठा गतिः सम्भाव्यत एव ।
स्वपर प्रकाशक अपर प्रदीपक्षणकी उत्पत्तिका कारण है, क्योंकि उसको उत्पन्न करनेका जो स्वभाव है वह अन्यकी अपेक्षा नहीं रखता है । आत्मा प्रतीन्द्रिय सुखादिकी उत्पत्ति में अन्यकी अपेक्षा नहीं रखता, क्योंकि उसको उत्पन्न करनेका उसका स्वभाव ही है, जो जिसके उत्पादनके स्वभावभूत होता है वह उसके उत्पादनके लिये ग्रन्यकी अपेक्षा नहीं करता है, जैसे अंत्यक्षणकी कारण सामग्री स्वकार्यके उत्पादनमें अन्यकी अपेक्षा नहीं रखती, प्रतिबंधक कर्मसे रहित आत्मा भी अतीन्द्रिय ज्ञानसुखादिके उत्पादन में तदुत्पादन स्वभावभूत है, अतः अन्य कारणकी अपेक्षा नहीं करता । इस प्रतीन्द्रिय सुखादिकी झलक उन पुरुषों को संसार अवस्थामें भी आती है जो वासी और चंदनमें समान भाव धारते हैं [ कुठार द्वारा घात करने वाले और चंदन द्वारा लेप करने वाले इन दोनोंमें समता भाव ] विशिष्ट ध्यानादिमें संलग्न हैं, ऐसे साम्यभावधारक वीत· राग साधुयोंको इन्द्रिय एवं शरीरकी क्रियासे जो उत्पन्न नहीं हुआ है ऐसा परम ग्राह्लादरूप सुखानुभव होता है, यही अनुभव शुद्धात्मा के भावनाके वशसे उत्तरोत्तर उत्कृष्ट अवस्थाको प्राप्त होता हुआ चरम सीमापर पहुंचना संभव ही है ।
विशेषार्थ- शुद्धात्माके ध्यानमें लीन परम वीतराग महासाधुग्रोंको जो कथ नी आनंद प्राप्त होता है उसका आध्यात्मिक ग्रंथोंमें वर्णन पाया जाता है, वह शुद्धात्म भावना या सिद्धांतानुसार शुक्ल ध्यान वृद्धिंगत होते हुए संपूर्ण कर्मोके नाशमें हेतु होता है | अतः प्रानंदरूपताको मोक्षका स्वरूप मानना जैनको इष्ट ही है । किन्तु ब्रह्मवादी इसको सर्वथा नित्य मानते हैं इसलिये उन्हें शंका हुई कि आत्माकी ग्रानंदरूपता यदि अनित्य है तो उसके उत्पत्ति कारण कौन होगा ? तब जैनने समाधान किया कि प्रतिबंधक कर्मका अभाव होना आनंदरूपताका कारण है । मुक्तावस्था में केवल आनंद ही नहीं रहता अपितु ज्ञान दर्शन यादि गुणोंका सद्भाव भी रहता है, अब यहां इन गुणोंके आविर्भाव के कारण क्रमशः बताते हैं - ज्ञानावरण कर्मके क्षयसे
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