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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रकृतिपुरुषविवेकोपलम्भः स्वरूपे चैतन्यमात्रेऽवस्थानलक्षणनिःश्रेयसस्य साधनमित्यन्ये । तथाहि-पुरुषार्थसम्पादनाय प्रधानं प्रवर्तते । पुरुषार्थश्च द्वेधा-शब्दादिविषयोपलब्धिः, प्रकृतिपुरुषविवेकोपलम्भश्च । सम्पन्न हि पुरुषार्थे चरितार्थत्वात्प्रधानं न शरीरादिभावेन परिणमते, विज्ञानं(तं) वा दुष्टतया कुष्टिनीस्त्रीवद्भोगसम्पादनाय पुरुषं नोपसर्पति; इत्यप्यसाम्प्रतम्; प्रधानासत्त्वस्य प्रागेवोक्तत्वात् । सति हि प्रधाने पुरुषस्य तद्विवेकोपलम्भः स्यात् । अस्तु वा तत्; तथापि पुरुषस्थं निमित्तमनपेक्ष्य तत्प्रवर्तेत, अपेक्ष्य वा ? न तावदनपेक्ष्य; मुक्तात्मन्यपि शरीरादिसम्पादनाय तत्प्रवृत्तिप्रसङ्गात् । अथापेक्ष्य प्रवर्तते; किं तदपेक्ष्यम् ? विवेकानुपलम्भः, अदृष्ट वा ? न तावद्विवेकानुपलम्भः;
ब्रह्माद्वतके ज्ञानके समान शब्दाद्वतका ज्ञान भी मिथ्या होनेके कारण मोक्ष का प्रसाधक नहीं है ऐसा समझना चाहिये । तथा आत्महत [ब्रह्माद्वैत] और शब्दाद्वैतका निरसन भी पहले कर चुके हैं अतः अब अधिक कथन नहीं करते ।
प्रकृति और पुरुषके भेदका ज्ञान चैतन्यका स्वरूपमें अवस्थान होना रूप मोक्ष का कारण है ऐसा सांख्य कहते हैं, प्रधान पुरुषार्थको संपादित करनेके लिये प्रवृत्ति करता है, पुरुषार्थके दो भेद हैं, शब्दादि विषयोंकी उपलब्धि होना और प्रधान तथा पुरुषके विवेक की उपलब्धि होना । पुरुषार्थके संपन्न हो जानेपर कृतकृत्य होनेके कारण प्रधान शरीरादि रूपसे परिणमन नहीं करता, जिसप्रकार किसी पुरुष द्वारा दुष्ट रूपसे कुट्टिनी स्त्रीके ज्ञात होनेपर वह कुट्टिनी पुरुषके उपभोगके लिये निकट नहीं आती भयसे दूर ही रहती है उसीप्रकार प्रधान और पुरुषके भेदकी उपलब्धि होनेपर वह प्रधान शरीरादि कार्यमें प्रवृत्ति नहीं करता और इसतरह संसार समाप्त होकर चैतन्यका स्वरूप में अवस्थान होता है इसीको मोक्ष कहते हैं। इसप्रकार का सांख्यका मंतव्य भी अयुक्त है । प्रधानका अस्तित्व नहीं है ऐसा पहले ही कह दिया है प्रधान नामा तत्त्व होवे तो उसका और पुरुषका विवेक उपलब्ध होसकता है । प्रधानके अस्तित्व को माने तो भी प्रश्न होता है कि वह प्रधान पुरुषमें स्थित निमित्त की अपेक्षा किये विना प्रवृत्ति करता है अथवा अपेक्षा लेकर प्रवृत्ति करता है ? विना अपेक्षा किये तो प्रवृत्ति कर नहीं सकता, अन्यथा मुक्तात्मामें भी शरीरादिके संपादनके लिये प्रवृत्ति करने लगेगा । अपेक्षा लेकर प्रवृत्ति करता है ऐसा द्वितीय पक्ष माने तो पुनः प्रश्न होता है कि पुरुष में स्थित निमित्तकी अपेक्षा लेकर प्रधान की प्रवृत्ति होती है सो वह निमित्त कौनसा है, विवेकका अनुपलंभ या अदृष्ट ? विवेकका अनुपलंभ कहो तो ठीक नहीं क्योंकि विवेक
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