Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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मोक्षस्वरूपविचारः
२१६ तस्य विवेकोपलम्भविनष्टत्वेन मुक्तात्मन्यपि सम्भवात् । न चानुत्पत्तिविनाशयोरसत्त्वेन विशेष पश्यामः । द्वितीयविकल्पोप्ययुक्तः; अदृष्टस्यापि प्रधाने शक्तिरूपतया व्यवस्थितस्यो भयत्राविशेषात् ।
दुष्टतया च विज्ञातं प्रधानं पुरुषं नोपसर्पतीति चायुक्तम्; तस्याचेतनतया 'अहमनेन दुष्टतया विज्ञातम्' इति ज्ञानासम्भवात् । ततः पूर्ववत्प्रवृत्तिरविशेषेणैव स्यात् इत्यलमतिप्रसङ्गेन ।
तदा द्रष्टु : स्वरूपेऽवस्थानं मोक्षः' इति चाभ्युपगतमेव, विशेषगुणरहितात्मस्वरूपे तस्यावस्थानाभ्युपगमात् । 'चिद्रू पेऽवस्थानम्' इत्येतत्तु न घटते; अनित्यत्वेन चिद्रूपताया विनाशात् । न
की उपलब्धि नष्ट होना विवेकका अनुपलंभ है और यह मुक्तात्मामें भी संभावित है, क्योंकि विवेककी अनुत्पत्ति और विवेकका विनाश इन दोनोंमें असत्वकी अपेक्षा तो कुछ भी भेद दिखायी नहीं देता ।
भावार्थ-सांख्य यदि कहे कि संसार अवस्थामें प्रकृति और पुरुषमें विवेकके उपलब्धिकी अनुत्पत्ति है और मुक्त अवस्थामें विवेक उपलब्धिका विनाश है सो इनमें सत्व की अपेक्षा कोई भेद दिखायी नहीं देता, विवेक उत्पन्न नहीं हया और विवेकका नाश हुआ सो अभावकृत भेद नहीं होनेसे कोई विशेषता नहीं है । पुरुषमें स्थित जो निमित्त है वह अदृष्ट है और उसकी अपेक्षा लेकर शरीरादिके संपादनमें प्रधान की प्रवृत्ति होती है ऐसा द्वितीय पक्ष भी प्रयुक्त है, अदृष्ट भी प्रधानमें शक्तिरूपसे उभय अवस्थाओंमें [संसारावस्था और मुक्तावस्था] विद्यमान है कोई विशेषता नहीं है।
दुष्टरूपसे ज्ञात हुया प्रधान पुरुषके निकट नहीं जाता ऐसा पूर्वोक्त कथन तो युक्ति संगत नहीं होता, क्योंकि प्रधान अचेतन है, अतः "मैं इसके द्वारा दुष्टपनेसे ज्ञात हो चुका हूं" ऐसा ज्ञान होना असंभव है, इसलिये वह तो ज्ञात होनेपर भी पहले के समान प्रवृत्ति करता ही रहेगा । इसप्रकार सांख्य परिकल्पित मोक्षका स्वरूप असिद्ध है, इस विषयमें अब अधिक नहीं कहते ।
दृष्टा आत्माका स्वस्वरूपमें अवस्थित होना मोक्ष है ऐसा मोक्षका स्वरूप मानना हमको [ नैयायिक-वैशेषिक को ] भी इष्ट है विशेष गुण रहित आत्माके स्वरूपमें स्थित होना रूप मोक्ष हम भी स्वीकार करते हैं, किन्तु चैतन्य स्वरूपमें अवस्थित होना रूप मोक्षका विशेषण घटित नहीं होता, क्योंकि चैतन्यत्व अनित्य होनेके कारण नष्ट होता है । इन्द्रियादिके साथ अन्वय व्यतिरेक होनेके कारण चैतन्य .
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