Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे चाक्षाद्यन्वयव्यतिरेकानुविधायिन्यास्तस्या नित्यत्वे प्रमाणमस्ति । आत्मस्वरूपतास्तीति चेत्; ननु चिद्रू पतात्मनोऽभिन्ना, भिन्ना वा स्यात् ? अभेदे पर्यायमात्रम् 'आत्मा, चिद् पता च' इति, तस्य च नित्यत्वाभ्युपगमात् सिद्धसाध्यता । भेदे तु संयोगादिभिरनैकान्तिकत्वम्; तेषामात्मधर्मत्वेपि नित्यत्वाभावात् । गुणगुणिनोश्च तादात्म्यविरोधादित्युपरम्यते । ततो बुद्धयादिविशेषगुणोच्छेदविशिष्टात्मस्वरूप एव मोक्षस्तत्त्वज्ञानादिति स्थितम् ।
अत्र प्रतिविधीयते । यत्तावदुक्तम्-नवानामात्मविशेषगुणानां सन्तानोत्यन्तमुच्छिद्यते; तत्रात्मनो भिन्नानां बुद्ध्यादिविशेषगुणानामात्मन्येव समवायादिना वृत्य सिद्ध : प्रागेवोक्तत्वात् कथमात्म
नित्य है ऐसा कहना भी प्रमाणद्वारा सिद्ध नहीं होता । आत्मरूपता होना यही प्रमाण है अर्थात् चैतन्यत्व तो आत्मरूपता ही है और वह नित्य है ही ? ऐसा कहो तो प्रश्न होता है कि चैतन्यरूपता आत्मासे भिन्न है कि अभिन्न ? अभिन्न कहो तो नाममात्रका भेद रहा आत्मा और चिद्रूपता, ऐसी आत्मरूपताको नित्यपनेसे स्वीकार करने के कारण सिद्ध साध्यता है । आत्मासे भिन्न होकर भी चिद्रूपता नित्य है क्योंकि वह आत्माका धर्म है ऐसा भिन्नताका द्वितीयपक्ष स्वीकार करे तो संयोगादिके साथ अनैकांतिकदोष पाता है, क्योंकि संयोगादिक आत्माके धर्म होते हुए भी नित्य नहीं हैं । गुण
और गुणीमें तादात्म्य मानने में विरोध भी आता है, इस विषयमें अब अधिक नहीं कहना है, अतः सिद्ध होता है कि बुद्धि आदि विशेष गुणोंका उच्छेद होकर विशिष्ट आत्म स्वरूप रहना ही मोक्ष है और वह तत्त्व ज्ञानसे प्राप्त होता है।
. जैन-अब यहां पर वैशेषिकके संपूर्ण मंतव्यका निरसन किया जाता है, आत्माके विशेष नौ गुणोंकी संतान अत्यन्त उच्छिन्न होती है ऐसा वैशेषिकने कहा किन्तु बुद्धि आदि विशेष गुण आत्मासे भिन्न नहीं हैं उनका समवायादि संबंधसे अात्मामें रहना सिद्ध नहीं होता ऐसा पहले ही निश्चित किया है, अतः आत्माके विशेष गुणोंकी संतान किसप्रकार सिद्ध हो सकती है जिससे कि उक्त संतानत्व हेतु आश्रयासिद्ध दोष मुक्त न हो ? तथा आपने इन विशेष गुणोंको अस्वसंविदित [स्वयं के अनुभवसे रहित] माना है अत: संतानत्व हेतु फिर भी आश्रयसे रहित हो जाता है।
विशेषार्थ-वैशेषिक गुणीसे गुणोंको भिन्न मानते हैं, समवाय सम्बन्ध द्वारा उन भिन्न गुणोंका गुणीमें सम्बन्ध होता है, बुद्धि आदि विशेषगुण आत्मामें समवाय सम्बन्धसे रहते हैं, ऐसा इनका कहना है किन्तु यह असत् है क्योंकि बुद्धि
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