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मोक्षस्वरूपविचारः
२२७ पगमे महेश्वरे तत्सद्भाव: स्यात् ? नित्यत्वं चेश्वरज्ञानस्येश्वरनिराकरणे प्रतिषिद्धम् । शरीराद्यपायेप्यस्य ज्ञानाद्यभ्युपगमेऽन्यात्मनोपि सोस्तु तत्स्वभावत्वात् । न च स्वभावापाये तद्वतोऽवस्थानमतिप्रसङ्गात् ।
___ यत्त क्तम्-प्रारब्धकार्ययोश्चोपभोगात्प्रक्षयः; तदपि न सूक्तम्; उपभोगात्कर्मणः प्रक्षये तदुपभोगसमये अपरकर्मनिमित्तस्याभिलाषपूर्वकमनोवाक्कायव्यापारादेः सम्भवात् अविकलकारणस्य प्रचुरतरकर्मणो भवतः कथमात्यन्तिकः प्रक्षयः ? सम्यग्ज्ञानस्य तु मिथ्याज्ञानोच्छेदक्रमेण बाह्याभ्यन्तरक्रियानिवृत्तिलक्षणचारित्रोपबृहितस्यागामिकर्मानुत्पत्तिसामर्थ्यवत् सञ्चितकर्मक्षयेपि सामर्थ्य सम्भाव्यत एव । यथोष्णस्पर्शस्य भाविशीतस्पर्शानुत्पत्तौ सामर्थ्यवत् प्रवृत्ततत्स्पर्शादिध्वंसे पि सामर्थ्य प्रतीयते । किन्तु परिणामिजीवाजीवादिवस्तुविषयमेव सम्यग्ज्ञानम्, न पुनरेकान्तनित्यानित्यात्मादिहै । तथा महेश्वरके शरीरादिके नहीं रहने पर भी ज्ञानादि गुणोंका सद्भाव स्वीकार किया जाता है तो अन्य प्रात्माके ज्ञानादि गुणोंका सद्भाव भी मुक्तदशामें स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि अन्य आत्मा भी ज्ञान स्वभावरूप हैं, यदि उस स्वभावका अभाव माना जाय तो स्वभाववान् आत्माका अभाव माननेका अतिप्रसंग उपस्थित होगा।
धर्माधर्मका कार्य प्रारंभ हो चुकने पर उनका उपभोग होकर क्षय हो जाता है ऐसा पूर्वोक्त कथन भी ठीक नहीं है, मात्र उपभोगसे ही कर्मका क्षय होता है ऐसा मानने पर उन कर्म फलोंका उपभोग करते समय अन्य नवीन कर्मके निमित्तभूत अभिलाषा पूर्वक मन वचन कायकी क्रियाका सद्भाव होनेसे जिसका अविकल कारण मौजूद है ऐसे प्रचुरतर नवीनकर्म उत्पन्न होते ही रहेंगे, अतः उनका अत्यन्त क्षय किस प्रकार हो सकेगा ? सम्यग्ज्ञान द्वारा कर्मोंका सर्वथा क्षय होना तो भलीभांति सिद्ध होता है, हां वह सम्यग्ज्ञान बाह्य क्रिया-हिंसादि पाप रूप एवं अभ्यंतर क्रिया-राग द्वेषादि कषाय की निवृत्ति होना रूप चारित्र द्वारा वृद्धिगत होना चाहिये, ऐसे सम्यग ज्ञानमें जैसे आगामी कर्मोंको उत्पन्न नहीं होने देना [संवर] रूप सामर्थ्य है वैसे पूर्व संचित कर्मोका क्षय करादेनारूप सामर्थ्य भी अवश्य ही रहती है । जैसे उष्ण स्पर्शमें भावीशीत स्पर्श को उत्पन्न नहीं होने देना रूप सामर्थ्य है वैसे वर्तमानके शीतस्पर्शको नष्ट करना रूप सामर्थ्य भी रहती है। किन्तु सम्यग्ज्ञान वही कहलाता है जो कथंचित परिणमनशील जीव, अजीव प्रादि वस्तुभूत पदार्थोंको विषय करता हो । सर्वथा नित्य या अनित्यरूप कल्पित पदार्थोको विषय करनेवाला ज्ञान सम्यग् नहीं कहलाता, क्योंकि विपरीत अर्थका ग्राहक होनेके कारण उसमें मिथ्यापना है ऐसा आगे प्रतिपादन करने
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