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कवलाहार विचार का सारांश
पूर्वपक्ष-श्वेताम्बर जैन केवलज्ञान होने के अनंतर भी भगवान भोजन करते हैं ऐसा मानते हैं, उनका कहना हैं कि जैसे हमारा औदारिक शरीर है वैसे भगवान का भी औदारिक शरीर है अतः उसकी आहार के बिना स्थिति नहीं रह सकती है। इस कथनमें देवों के साथ व्यभिचार भी नहीं पाता है क्योंकि उनका शरीर वैक्रियिक है महाशास्त्र तत्वार्थसूत्रमें कहा है कि "एकादश जिने" जिनेन्द्रदेव के ग्यारह परीषह होती है, इनमें भूख प्यास आदि अन्तर्भूत है, इत्यादि सो इस पागम प्रमाण से भगवान के आहार सिद्ध होता है ।
उत्तरपक्ष-यह कथन युक्ति युक्त नहीं है, भगवान पाहार करते हैं तो उनके अनंतसुख का अभाव होने से अनंत चतुष्टय स्वभाव का नाश होता है, आप कहो कि हमको भोजन करने से जैसे सुख होता हैं तथा शक्ति आती है वैसे भगवान के होता है सो यह कथन अनुचित है, भगवान के तो अनंत सुख और शक्ति है अतः अाहारादि की जरूरत नहीं है । तथा भगवान के रागद्वेष न होने के कारण भोजन नहीं करते हैं साधु लोग भी भोजन करते हैं सो वास्तविक वीतरागी नहीं हैं अतः करते हैं क्योंकि उनके तो मोहनीय कर्म मौजूद है । आप केवली के सामान्य प्राहार मानते हो या कवलाहार हो ? सामान्य अाहार मानो तो कोई बाधा नहीं, क्योंकि केवली के (कर्म) नो कर्माहार होना माना ही है । आहार छः तरह का है, कर्माहार, नोकर्माहार, प्रोजाहार, लेपाहार, मानसिकाहार और कवलाहार, इनमें से भगवान के नोकर्माहार है। भोजन का अभाव, उपसर्ग का अभाव यह अतिशय भगवान के केवलज्ञान होते ही प्रगट होते हैं ऐसा आगम है, वेदनीय कर्मका सद्भाव होने से आप केवली के भोजन का होना मानते हो किन्तु यह प्रयुक्त है, क्योंकि वेदनीय कर्म मोहनीय के बिना फल देने में समर्थ नहीं है अन्यथा स्त्री भोगादि भी मानने पडेंगे । भगवान भोजन करते हैं सो किस प्रकार करते हैं ? घर घर में भोजन के लिये घूमते हैं या एक घर में भिक्षा लाभ जानकर सीधे चले जाते हैं ? घर घर में घूमते हैं तो अज्ञानी दीन हुए, और जानकर एक जगह ही जाते हैं तो भिक्षा शुद्धि नहीं रहो । समवशरणमें बैठकर भोजन
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