________________
मोक्षस्वरूपविचारः ÖR:8::8:::8:::88::88::88:::8:::8::
ननु च 'अनन्तचतुष्टयस्वरूपलाभो मोक्षः' इत्ययुक्तम्; बुद्ध्यादिविशेषगुणोच्छेदरूपत्वात्तस्य । तदुच्छेदे च प्रमाणम्-नवानामात्मविशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते सन्तानत्वात् प्रदीपसन्तानवत् । न चायमसिद्धो हेतुः; पक्षे प्रवर्त्तमानत्वात् । नापि विरुद्धः; सपक्षे प्रदीपादौ सत्वात् । नाप्यनैकान्तिकः; पक्षसपक्षवद्विपक्षे परमाण्वादावप्रवृत्त: । नापि कालात्ययापदिष्टः; विपरीतार्थोपस्थापकयो: प्रत्यक्षागमयोरसम्भवात् । नापि सत्प्रतिपक्षः; प्रतिपक्षसाधनाभावात् ।
सर्वज्ञ सिद्धि के अनंतर जैनाचार्य ने प्रतिपादन किया था कि सर्वज्ञ भगवान के अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख एवं अनंतवीर्य इसप्रकार अनंत चतुष्टय स्वरूप स्वभावका लाभ होता है इसी स्वरूप लाभको मोक्ष कहते हैं, इसतरह मोक्षका स्वरूप प्रतिपादित होने पर वैशेषिक अपना पक्ष उपस्थित करता है
वैशेषिक-अनंत चतुष्टय स्वरूप आत्माका लाभ होना मोक्ष है ऐसा मोक्षका लक्षण अयुक्त है, मोक्ष तो बुद्धि आदि नौ विशेष गुणोंका होने से होता है । गुणोंका नाश कैसे होता है इस बात को अनुमान प्रमाण द्वारा सिद्ध करते हैं-बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, और संस्कार इन गुणोंके संतानका सर्वथा उच्छेद हो जाता है, क्योंकि ये सब संतानरूप है [इनमें संतानपना इसप्रकार होता है-धर्म अधर्म से बुद्धि उत्पन्न होती है, बुद्धिसे संस्कार, संस्कारसे इच्छा और द्वेष, इच्छाद्वेष से प्रयत्न, प्रयत्नसे सुख दुःख उत्पन्न होते हैं] जैसे प्रदीपकी संतान नष्ट होती है। यह संतानत्व हेतु असिद्ध नहीं है, क्योंकि पक्षमें विद्यमान है, विरुद्ध भी नहीं है, क्योंकि सपक्ष दीपक आदिमें विद्यमान है । पक्ष और सपक्ष रहते हुए भी विपक्षभूत परमाणु आदिमें नहीं रहन से अनैकान्तिक भी नहीं है । इस संतानत्व हेतुके अर्थको विपरीत
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org