Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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मोक्षस्वरूपविचारः
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ततस्तदुत्पत्तिः स्यात् ? अथाद्य योगजधर्मापेक्षान्त:-करणसंयोगो विज्ञानं जनयति तच्चापेक्ष्योत्तरोत्तरं ज्ञानम्; तदप्ययुक्तम्; न हि शरीरसम्बन्धानपेक्षं विज्ञानमेवान्तःकरणसंयोगस्य ज्ञानोत्पत्ती सहकारिकारणं दृष्टम् । न च दृष्टविपरीतं शक्यं कल्पयितुमतिप्रसङ्गात् । आकस्मिकं तु कार्य न भवत्येव, अहेतोः सर्वत्र सर्वदा भावप्रसङ्गात् ।।
किञ्च, यथा मुक्तावस्थायामनित्यसुखमतिक्रम्य नित्यं परिकल्प्यते, तथा नित्यत्वधर्माधिकरणं शरीरादिकमपि परिकल्पनीयम् । कार्यत्वात् तस्य कथं नित्यत्वधर्माधिकरणत्वम् दृष्टविरोधादप्रमाणकत्वाच्च ? इत्यन्यत्रापि समानम् । न खलु नित्यसुखसाधकत्वेन प्रत्यक्षानुमानागमानां मध्ये किञ्चिर
अवस्थामें योगज धर्मका अभाव होनेसे आत्मा और मनके संयोगके लिये उसकी अपेक्षा किसप्रकार हो सकती है जिससे कि मुक्तिमें नित्यसुखके संवेदनकी उत्पत्ति हो सके।
शंका-योगज धर्मकी अपेक्षा लेकर होनेवाला मनका संयोग आदिके संवेदन को उत्पन्न करता है फिर उसकी अपेक्षा लेकर उत्तरोत्तर ज्ञान उत्पन्न होते हैं ?
समाधान-यह कथन प्रयुक्त है, क्योंकि शरीर के सम्बन्धकी अपेक्षा से रहित अकेला विज्ञान ज्ञानोत्पत्ति में मनःसंयोग का सहकारी कारण बनता हुआ कहीं पर देखा नहीं है । देखे हुए पदार्थसे विपरीत की कल्पना करना अशक्य है अन्यथा अतिप्रसंग होगा । आकस्मिक कार्य तो होता नहीं, यदि कार्यको अहेतुक माने तो सर्वत्र सर्वदा उसका सद्भाव स्वीकार करना पड़ेगा।
किंच, जिसप्रकार आप वेदांती मुक्तावस्थामें अनित्य सुखका अतिकम होकर नित्य सुखका होना स्वीकार करते हैं, उसप्रकार वहांपर नित्य धर्मके अधिकरणभूत शरीरादिको भी स्वीकार करना चाहिये ।
शंका-शरीरादिक कार्यरूप है अतः वह नित्य धर्मका आधार किसप्रकार हो सकता है ? क्योंकि दृष्ट विरोध एवं अप्रमाणत्वका प्रसंग आता है ?
समाधान-यही दृष्ट विरोध एवं अप्रमाणत्वका प्रसंग संसारावस्थामें नित्यसुखको मानने में आता है, क्योंकि प्रत्यक्ष अनुमान और आगम इनमेंसे कोई भी प्रमाण नित्य सुखका साधक नहीं है, हमारे इन्द्रिय प्रत्यक्षकी तो इस विषयमें प्रवृत्ति ही नहीं होती, और योगी प्रत्यक्ष इसप्रकारसे प्रवृत्त होता है या अन्यथा प्रवृत्त होता है [ नित्य
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